Saturday, February 14, 2015

मिठाई सिठाई


इतनी छोटी-सी तो हूँ मैं। मैं क्या कहानी-किस्सा कुछ कह पाती हूँ? पर बात यह हुई कि इस बार होली पर हमारी नई-नई चाची, जिनकी अभी चार महीने पहले ही शादी हुई है, हमारे यहाँ आने वाली थीं। पर शायद यह भी कहने की कोई बात नहीं है। मुझे जहाँ तक मालूम है शुरु में सभी बहुएँ जब मायके से आती हैं, तो थोड़ी-बहुत मिठाई साथ लाती ही हैं। पिंकी की भाभी दस किलो मोतीचूर के लड्डू लाई थीं। लाईं तो वह दो-ढाई किलो गुलाबजामुन भी थीं। पर पिंकी मुझे बता रही थी कि उसकी अम्मा ने सारी गुलाबजामुन छिपा ली थीं, किसी को भी बताया नहीं। और पाँचू की मामी जब आई थीं, वह भी अपनी माँ के घर से टोकरों मिठाई लाई थीं। उसकी ननिहाल के शहर के घर-घर में इतनी मिठाई बाँटी गई कि लोग मिठाई के नाम से भी ऊबने लगे।
जब कभी भी मिठाइयों की बात चलती है, तो पाँचू हम लोगों को अपनी मामी के साथ आई एक-एक मिठाई की बातें ऐसे सुनाता है कि हमारे सबके मुँह में पानी भर कर जाता। इतनी मिठाई आई कि जिन कपड़ों में वे टोकरे बँध कर आए थे, सारी मिठाई खत्म होने के बाद भी, उनसे मुद्दत तक खुशबू आती रहीं।

और अब हमारी बारी है। हमारी चाची आएँगी और साथ में मिठाई तो कुछ लाएँगी ही, इतना अनुमान मैं क्या नहीं लगा सकती? पच्चीस-तीस किलो से क्या कम होगी वह।
बात यह है कि हमारे बाबा और दादी तो बनारस में रहते हैं, सो वहीं से उन्होंने चाचा की शादी की थी। हम भी वहाँ पूरे दो महीने रहे। मिठाई-मिठाई सब वहीं खत्म हो गई। यहाँ हमारे मित्रों में बाँटने को मम्मी कुछ भी नहीं लाईं। और पाँचू की माँ अपने घर से एक छोटी टोकरी में बहुत-सी मिठाई लाई थीं। एक बालूशाही पाँचू ने मुझे भी चुपके से दी थी। बड़ी अच्छी थी। उसका स्वाद और खुशबू तो मुझे अभी तक याद है।

मम्मी कहती हैं, मिन्नी, तू बड़ी नदीदी है, तो मैं गुस्सा हो जाती हूँ। पर क्या बताऊँ, मिठाई की बात आते ही मेरी नाक में उसकी खुशबू ही नहीं भर जाती, बल्कि मुँह में स्वाद भी आ जाता है।

चाचा की चिट्ठी आई थी कि वह चाची के साथ चार-पाँच दिन को आ रहे हैं और यहीं से फिर बंबई चले जाएँगे, तो मैं खुशी के मारे उसी दिन बजरबट्टू बन गई। बजरबट्टू क्या होता है? हमें नहीं मालूम। हमारी मम्मी ही मुझ पर जब गुस्सा होती हैं, तो डाँट लगाती हैं “क्या बजरबट्टू-सी सारे में नाचती रहती है!’

हाँ, तो मैं पापा के मुँह से चाचा की चिट्ठी की बात सुनकर उसी दिन सारे बच्चों से, एक-एक के घर जाकर, बता आई कि ‘हमारे चाचा आ रहे हैं। साथ में चाची आ रही हैं अपनी अम्मा के घर से और मिठाई-सिठाई तो आएगी ही बहुत सारी।’

चाची अमीर घर की हैं। हमारी, पिंकी की, पाँचू की और दीना की, चारों कोठियाँ मिलादें ऐसा उनका एक महल है। महल में ऐसे बड़े-बड़े, ऊँचे-ऊँचे कमरे कि धीरे से बोलो तो भी आवाज ऐसी गूँजे जैसे लाउड स्पीकर पर बोल रहे हैं।

वीनू ने कई दिन से मुझसे और मेरे छोटे भाई टिंकू से खुट्टी कर रखी थी। जब उसने सुना कि हमारे चाचा-चाची आने वाले हैं, उनके साथ में ढेरों मिठाई आने वाली है, तो झटपट नाक-कान पर हाथ घर कर खुट्टी तोड़ कर हँसने लगी-‘वाह, मिन्नी, तुझसे क्यों खुट्टी करुँगी? तुम तो मेरी एकदम पक्की सहेली हो। वह तो दीना ने झूठमूठ बात लगा दी थी।‘

मैं सब जानती हूँ। वीनू ऐसी ही है। जब दूसरे का मतलब होता है, तो अपने घर में घुस जाती है, किसी से ढँग से बात भी नहीं करती, और जब अपना मतलब होता है, तो चट से पक्की सहेली बन जाती है। लालची कहीं की!

चाची के साथ आई मिठाइयों में कोई इमरती होगी तो जरुर इस वीनू को दे दूँगी। भला इमरती भी कोई मिठाई है?

पर यह न सोचे कोई कि चाची के आने से हमारे यहाँ बड़े मजे हो रहे हैं। ओफ! चाची क्या आ रही हैं कि पापा ने हम दोनों से फौज के जवानों जैसी कवायद शुरु करवा दी है।

सुबह-सुबह उठकर मैं वरांडे की सीढ़ियों पर बैठी ही थी कि पापा ने गरज कर आवाज दी “ऐ मिन्नी, इधर तो आओ।“

मैं डरते-डरते उनके पास पहुँची, तो डाँटते हुए बोले, “क्यों री, दस बजे सोकर उठी है और आलसियों की तरह सीढ़ी पर बैठ गई। तुझे नहीं मालूम कि खाट से उठकर ऐसे सीढ़ियों पर बैठना मनहूसों का काम है। तेरी चाची देखेंगी, तो क्या कहेंगी?”

चुप रही, क्या कहती? पापा जो ठहरे! पर मुझे क्या घड़ी देखनी नहीं आती! साढ़े सात बजे हैं और कहते हैं- दस बज गए। हुँ: !

रोज सुबह-सुबह पापा खाट पर पड़े-पड़े आवाज लगाते हैं-“अरे,यह कमबख्त बहादुर सिंह अभी तक चाय नहीं लाया। कहाँ मर गया!” मम्मी उठेंगी, सो इन्हीं सीढ़ियों पर बैठ कर कहेंगी-“अरे बहादुरे, तुझे एक कप चाय देने में भी बरसों लग जाएँगे। मेरी तो चाय के बिना आँखें भी नहीं खुल रही है!”

कल पापा मम्मी से कह रहे थे-“ऐ जी, जरा ढँग से रहना सीखो। बाल काढ़ती हो, तो धुटनों पर शीशा घर कर। फिर वहीं खाट पर ही शीशा छोड़ देती हो और वहीं कंघा।“

मम्मी बिगड़ गईं- “मैं तो अपनी अम्मां के घर से इतनी बड़ी ड्रेंसिंग टेबिल लाई थी, पर तुम्हारे लाड़ले ने गेंद मारकर शीशा तोड़ डाला, तो क्या मैं जाती उसे बनवाने? अरे, मेरे लिए नहीं, तो अपनी लाड़ली बहूरानी के लिए ही उसे बनवा दो न। कबाड़खाने में डाल दिया है मेरी ड्रेसिंग टेबिल को?”

पापा उसी दिन झटपट जाकर ड्रेसिंग टेबिल ठीक करवा लाए। मजदूर लगवाकर सारे घर की पुताई करवाई, सारा सामान खुद ही मजदूरों से जमवाया। वाह! हमारा घर तो एकदम चमाचम हो गया!

जरा-सी भी गड़बड़ देखते, तो पापा डाँटने लगते-“क्या गड़बड़ कर रखी है, क्या सोचेगी बहूरानी कि जेठ जी डिप्टी कलेक्टर हैं, पर ढँग से रहना भी नहीं आता।“

एक दिन मम्मी से बोले, “ए जी, सुनती हो? बहूरानी के घर के एक कमरे में ही इतना कीमती सामान लगा है कि हमारी पूरी कोठी में भी नहीं होगा।“

बात तो पापा एकदम ठीक कहते हैं। उनके ड्राइंग रुम में जो पीतल की बहुत बड़ी नटराज की मूर्ति रखी है, उसी के लिए बाराती लोग कह रहे थे कि हजारों रुपयों की होगी।

पापा की बात सुन कर मम्मी बिगड़ गई, “होंगी अमीर अपने घर की, हमें कौन कुछ दे जाएँगी!”
पापा ने हाथ जोड़ दिए, “अच्छा, भली मानस, उनके सामने अपनी जबान कंट्रोल में रखना!”
मम्मी जल-भुनकर कुछ कहतीं कि रसोईघर से सब्जी जलने की बास आई और वह उधर ही भागीं।

सब्जी उतारकर वह वहीं से चिल्लाईं-“ऐ, सुनते हो जी, तुम्हारी लाड़ली बहूरानी के घर में छः नौकर होंगे। उनकी अम्मां और वह पलंग से पाँव भी नीचे न धरती होंगी। वह आएगी, तो क्या कहेगी कि उसकी जिठानी हर समय चुल्हे से ही चिपकी रहती है.... शरम नहीं आएगी तुम्हें ..... यह कमबख्त बहादुरसिंह तो हर समय बाजार.....”

पर पापा बहादुरसिंह को लेकर बाजार जा चुके थे। मुझे और टिंकू को हँसी आ गई। मम्मी आज सचमुच दीवारों से बातें कर रही थीं!

अरे! जाने भी दो। बच्चों को मम्मी और पापा की बुराई नहीं करनी चाहिए। किताबों में लिखा है। इससे पाप लगता है।

मेरा दिमाग भी कितना खराब है। क्या कह रही थी, क्या कहने लगी। तभी मम्मी कहती हैं,
“तू कुछ नहीं कर सकती। हर बात भूल जाती है।“
पिछले महीने मम्मी ने विमला आंटी से पुछवाया था कि वह अचार की मिर्चे लेने बाजार चलेंगी क्या?”
रास्ते में मुझे छुन्नू मिल गया। बताने लगा कि उसकी मम्मी अस्पताल से आ गई हैं और उसके लिए एक नन्हा-सा भैया लाई हैं। सो मैं सब कुछ भूलभाल चटपट छुन्नू के साथ उसका भैया देखने भाग गई। बड़ा प्यारा-प्यारा मक्खन जैसा था। छुन्नू की मम्मी ने थोड़ी-सी देर को मेरी गोदी में भी लिटा दिया गया था उसे। घंटे भर बाद लौटी, तो बड़ी उमंग में कि मम्मी से जिद्द करुँगी कि वह भी अस्पताल जाकर जरुर एक छोटा-सा भैया ले आएँ। नहीं .... नहीं .... भैया नहीं! टिंकू कितना शैतान है! मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। मम्मी से कहूँगी एक बहन लाए। छोटी-सी। कोई बहुत महँगी थोड़े ही होगी चार-पाँच सौ रुपये में आ जाएगी!”

मैं उछलती-कूछती चली आ रही थी कि दरवाजे पर ही मम्मी ने चपत जड़ी “इत्ती देर कहाँ लगा दी? विमला चलेंगी या नहीं?” फिर जैसे खुद से ही बोलीं, “अब क्या चलेंगी, शाम तो हो गई!”

मैं तो घबड़ा गई‘हाय! विमला आंटी के घर जाना तो भूल ही गई’, पर मम्मी से चटपट झूठ बोल दिया,” विमला आंटी के सिर में दर्द हो रहा है!”

मम्मी भी तो ऐसे ही झूठ बोलती हैं। पापा कमीज में बटन टाँकने को कह जाएँगे। मम्मी सारे दिन कहानी पढ़ती रहेंगी, जब पापा पूछेंगे तो चट से कह देंगी कि क्या करुँ! कल सारे दिन सिर में दर्द ऐसा होता रहा कि आँख भी न खोल सकीं!”

हाँ, तो मैं क्या कह रही थी? याद आया... चाची के साथ आने वाली मिठाई की बात।

तो मिठाई आना कोई ऐसी बात नहीं कि उसके लिए किस्सा-कहानी गढ़ने बैठ जाया जाए। तमाशा बना दिया पिंकी, पाँचू, वीनू, दीना और टिंकू ने। मैं तो बराबर मना ही करती रही थी। पर सबने दोष मुझ पर ही जड़ दिया कि मिन्नी ने ही अलमारी के ऊपर से कैंची उतारी थी। फिर जब चाचा-चाची आए, तो कैंची थी भी तो मेरे ही हाथ में। बिना बात फँस गई मैं तो!

बात यह हुई कि चाचा-चाची की ट्रेन सुबह आठ बजे आने वाली थी। पापा सुबह से ही अपनी कार लेकर स्टेशन चले गए थे। मम्मी कहती भी रहीं, “बेकार यह खटारा मत ले जाओ। इससे तो अच्छा यही होगा कि उन्हें पैदल ही ले आना!”

पापा अच्छे मूड में थे, सो हँसते-हँसते चले गए। छुट्टी का दिन था यानी इतवार। गाड़ी लेट तो रोज ही होती होगी, क्या पता आज एक घंटा पहले ही आ जाए। सो मैं और टिंकू सुबह ही नहा-धोकर, सजधज कर तैयार हो गए। किसी भी कार का हार्न सुनाई पड़ता, तो हम यही समझते जैसे चाचा-चाची आ गए। दौड़कर बाहर जाते। बाहर खेलते, तो मम्मी डाँटकर बुला लेतीं कि बाहर मत खेलो, कपड़े गंदे हो जाएँगे।

वैसे चाचा-चाची का तो इंतजार था ही हमें, पर हमारे मुँह में तो सुबह से ही उनके साथ आने वाली मिठाई का स्वाद बसा था। अहा, चौधरी स्वीट हाऊस की मिल्क पुडिंग की कैसी बढ़िया खुशबू होती है! मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे सारे घर में मिठाई की खुशबू ही भरी हो!

आठ बजते न बजते पाँचू, वीनू, पिंकी, दीना, छुन्नू सब आ गए ऐसे सज-धजकर जैसे आज ही तो चाचा की बारात जाने वाली हो, और वे ही सब बाराती हों। नदीदे कहीं के! मैं तो कभी ऐसे किसी के घर नहीं जाती। वह तो पाँचू जब अपनी ननिहाल से मामा की शादी करके आया था, तो मैं कोई मिठाई खाने थोड़े ही गई थी, मैं तो अपनी नई किताब उसे दिखाने गई थी।

तो मरा खटारा चाचा-चाची को लेकर लौटा ग्यारह बजे। चाचा मम्मी से कह रहे थे, “दो घंटे गाड़ी लेट और एक घंटे खटारा लेट। आखिर ट्रेन से तो कम ही लेट रहा! भाभी, इस खुशी में मिठाई खिलाओ!”

मिठाई का नाम सुनते ही मेरे मुँह में फिर पानी आ गया। वाह, चाची के साथ आई बड़-सी पिटारी में से कैसी बढ़िया खुशबू आ रही है! लखनऊ की मिठाई है न। मैंने सोचा, मम्मी अब झटपट चाचा-चाची के साथ आई मिठाई की बड़ी-सी टोकरी को खोलकर सबका मुँह मीठा कराएँगी।

पर, मम्मी तो एक दम बुद्धू निकलीं। हँसते-हँसते बोलीं, ”हाँ-हाँ, प्रकाश भैया, मिठाई क्यों न खिलाऊँगी। कल इस खटारे की डायमंड जुबली मनाएँगे, तब इस पर बैठकर ताजमहल देखने चलना, वहीं मिठाई खाना। क्योंकि यह भी तो शाहजहाँ के जमाने का है न!

चाचा खिलखिलाकर हँस पड़े, “बस, फिर तो देख चुके ताजमहल....”

बस सब हँसने लगे और मिठाई की बात खतम। यह भी कोई हँसने की बात हुई? काम की बात करना तो कोई जानता ही नहीं!

और हम सोच रहे थे कि आज खाना नहीं खाएँगे। चाची के घर से आई मिठाई ही खाएँगे पेट भर। चौधरी स्वीट हाऊस की काजू की दालमोठ भी तो आई होगी। दालमोठ तो मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती, पर काजू बहुत अच्छे लगते हैं। खैर, कोई बात नहीं, मैं खाली काजू ही खा लूँगी।

अब देखो न, मैं अभी छोटी ही तो हूँ। पर मम्मी जब देखो डाँटती रहती हैं, “इत्ती धींगड़ी हो गई, नौ साल की, भगवान जाने कब अकल आएगी इसे।‘ (वैसे एक बात है, मम्मी पिंकी, पाँचू यानी सबकी मम्मियों से हमेशा यही कहती हैं- ‘अरे! हमारी मिन्नी तो देखने में एकदम लम्बी हो गई हैं। वैसे है तो अभी साढ़े छह ही साल की!’)

मैं तो फिर बात गड़बड़ कर गई। हाँ, तो मम्मी मुझे धींगड़ी कहती हैं, पर यह मम्मी खुद इतनी बड़ी हो गईं, इन्हें कौन अक्ल सिखाए? अब देखो, सुबह से बच्चे सब भूखे बैठे हैं कि चाचा-चाची के साथ मिठाई आएगी, तो खाएँगे। पर इन मम्मी को देखो, मिठाई-सिठाई की कोई बात ही नहीं। जैसे उन्हें मिठाई पसंद ही न हो।

चाची ही कहतीं कि इस पिटारी से मिठाई निकाल कर इन बच्चों को दे दो। सो उन्हें भी कुछ ध्यान नहीं।

पापा जी जल्दी-जल्दी आए और बोले, “अरे भई, मैं तो भूल ही गया था। जल्दी से खाना लगाओ। तीन बजे अखिल चला जाएगा। बहुत कह गए थे वे लोग कि प्रकाश और बहू आएँ, तो थोड़ी देर को ले आना। हम लोग तो आ नहीं पाएँगे।“

चारों जनों ने जल्दी-जल्दी खाना खाया और चल दिए अखिल चाचा के घर। इतना भी नहीं सोचा कि अखिल चाचा कलकत्ते जा रहे हैं, तो चाची के साथ आई थोड़ी-सी मिठाई उनके लिए भी ले चलें।

मैं और टिंकू रह गए घर में। थोड़ा बहुत खाना दोनों ने खाया ही। जब मिठाई खाने का मन हो, तो रोटी खाना क्या अच्छा लगता है क्या? पर सच, हम बच्चे बिचारे बड़े सीधे होते हैं!

पापा वगैरा के जाने पर पिंकी, छुन्नू, दीना, पाँचू, वीनू सब अपने-अपने घर खाना खाने चले गए। अभी तक तो मेरे लूडो से खेलते रहे थे, पर अब कब तक लूडो से खेलते। भूख भी तो लग रही होगी।

बहादुर ने चाची का सारा सामान ऊपर के कमरे में पहुँचा दिया, जिसे पापा ने चाची के लिए पहले से ही सजा दिया था।

पूरा एक घंटा लगा होगा उनका सामान जमाने में।

जब वह मिठाई की पिटारी उठाने लगा, तो मैं भी वहीं खड़ी हो गई। पता नहीं, बहादुर ने कहीं पटक-पटका दिया, तो चूरा ही बन जाएगा। यह लखनऊ की मिठाई है जी, लखनऊ की! कोई सुंदरम अंकल के घर के लड्डू नहीं, जो हथौड़े से तोड़ें, तो हथौड़ा टूट जाए, पर लड्डू न टूटे!

बहादुर ने पिटारी उठाई, तो एकदम नाक से सटा कर लंबी-सी साँस सींच कर बोला, “अरे वाह!”

“क्या बड़ी बढ़िया खुशबू आ रही हैं इसमें से?” टिंकू ने पूछा, तो बहादुर हँस दिया और टिंकू की नाक से पिटारी सटा दी “देख आ रही है न बढ़िया खुशबू!”

खुशबू तो मुझे भी बढ़िया लग रही थी। लखनऊ की मिठाई की। खुशबू के क्या कहने! मुझे तो नाम से ही खुशबू आने लगती है।

तभी पाँचू आ गया। टिंकू उछलते-उछलते बोला, “अरे पाँचू, देखो न चाची की मिठाई की पिटारी में से कैसी बढ़िया खुशबू आ रही है!”

“क्या मिठाई की पिटारी खोल ली?” पाँचू की आँखें चमकने लगीं।

“अजी, अभी कहाँ, तारीफ तो यही है। बिना खुले ही इतनी खुशबू आ रही है, तो खुलने पर कितनी आएगी! तुम्हारी मामी के घर की बालूशाही में से तो इसकी आधी भी खुशबू नहीं आ रही थी,” मैंने पाँचू को चिढ़ाने को कहा।
पर वह तो बड़ा चंट निकला। ऐसे हँसता रहा कि जैसे उसे मेरी बात बुरी ही न लगी हो।

इतने में पिंकी, छुन्नू, वीनू और दीना भी आ गए। वीनू तो अपने बाग से एक सुंदर-सा फूल भी लाई मेरे लिए। बोली-“ले, मिन्नी, दीना ने तुझसे यही तो कहा था न कि तू ने मेरा फूल तोड़ा, सो मैं गुस्सा हो गई थी। ले, मैं तेरे लिए खुद फूल ले आई। अब तो मानती है न कि मैं तेरी एकदम पक्की सहेली हूँ।“

सच, कभी-कभी तो वीनू मुझे बहुत ही प्यार करती है। मैंने फूल अपने बालों में पिन से अटका लिया। टिंकू अपनी बुश्शर्ट में लगाने की जिद कर रहा था। पर कहीं लड़कियों के बालों से लड़कों की बुश्शर्ट में फूल ज्यादा अच्छा लगता है? कुछ भी नहीं मालूम इसे, एकदम बुद्धू है। खैर, हम सब ऊपर पहुँचे। पिटारी एक कोने में रखी थी, सौ मैंने आगे खिसका ली। खूब भारी थी। एकदम ऊपर तक भरी हुई।

टिंकू बोला, “दीदी, क्या इसमें हाथ डालकर एकाध टुकड़ा मिठाई का निकाला नहीं जा सकता? मुझे तो बड़ी भूख लगी है।“

पिंकी ने घबड़ाकर पूछा, “अरे, तो क्या तूने खाना नहीं खाया अभी तक?”

“खाया तो था, पर थोड़ा-सा,” टिंकू शरमा गया। और बुरा-बुरा मुँह बनाकर फिर मिठाई की पिटारी पर झुक गया।

छुन्नू, दीना और पाँचू पहले से ही पिटारी पर झुके यह देखने की कोशिश कर रहे थे कि कहीं कोई छेद मिल जाए, तो हाथ डालकर कुछ निकाला जाए।

पर सारी पिटारी को मोटे वाले लाल कपड़े में बाँध ऐसी बारीकी से सिया गया था कि एक छँगुलिया जाने की भी जगह नहीं थी।

“छिः, चाची के घर वाले हमें क्या चोर समझते थे कि मिठाई चुराकर खा जाएँगे,” मैंने कहा, तो सब हँसने लगे। कुछ सोच कर पाँचू बोला, “सुन, मिन्नी, यहाँ पर जरा दूर-दूर पर सिलाई है। अगर कैंची मिल जाए, तो थोड़ा काटकर अंदर हाथ डाला जा सकता है।“

टिंकू कैंची इधर-उधर ढूँढने लगा।

“अगर इतनी देर में चाचा-चाची आ गए, तो? कहेंगे बच्चे कितने नदीदे हैं,” मैंने कहा।

“नदीदे क्यों हैं, जी, मिठाई तो हमी लोगों के लिए है न,” टिंकू ने अकड़ कर कहा।

“और क्या हम लोगों ...... तुम लोगों के लिए नहीं, तो क्या वे साथ ले जाएँगे?” छुन्नू बोला।

“पर ऐसे अच्छा तो नहीं लगता,” पिंकी बोली।

“क्या अच्छा नहीं लगता, जी, मिठाई हमारे लिए है, हम खा रहे हैं। फिर उन्हें पता भी क्या लगेगा। थोड़ी-सी तो निकालेंगे,” टिंकू फिर बोला।

अलमारी के ऊपर रखी कैंची मुझे दिख गई। जल्दी से मेज के ऊपर चढ़कर मैंने कैंची उतार ली।

पाँचू ने जल्दी से दो-चार धागे काटे और सिलाई उधेड़ने लगा।

“ज्यादामत उधेड़ना, पाँचू,” मैं चिल्लाई। तब तक क्या देखती हूँ कि इस शैतान की आँत टिंकू ने दूसरी तरफ से भी सिलाई काट डाली है।

“हाय राम, यह तूने क्या किया, कमबख्त!” मैं घबड़ा कर चीखी, सिलाई तो पूरी ही उधड़ गई। हमें तो सीना भी नहीं आता, जो जल्दी से सी दें। उधर मम्मी का भी डर लग रहा था। कहीं इन सबने ज्यादा मिठाई खा ली, तो मम्मी मुझे कितना मारेंगी। फिर तो शायद मुझे एक टुकड़ा भी खाने को न दें। मैंने टिंकू के हाथ से कैंची छीन ली और जैसे ही उसे मारने को हाथ उठाया कि देखा दरवाजे पर चाचा और चाची दोनों खड़े हमें घूर रहे हैं।

डर और घबड़ाहट के मारे मेरे हाथ से कैंची छूट कर गिर पड़ी। लगा कि अभी बेहोश होकर गिर जाऊँगी।

“ओफ्फोह, ये बच्चे कितने शैतान हैं?” चाची अपनी बारीक-सी आवाज में चीखीं।

टिंकू जो पापा से भी नहीं डरता, चाची की आवाज से डरकर उसने टोकरी के अंदर डाला अपना हाथ बाहर खींचा और हम सबने आँखें फाड़कर देखा उसके हाथ में लाल सुनहरी रंग की एक चप्पल लटकी है!

“क्या? चप्पल!” सब एक साथ चीख पड़े।

टिंकू ने चाची की परवाह किए बिना एकदम पिटारी का ढक्कन खोल दिया। उसमें रंग-बिरंगी तरह-तरह की चप्पलें, जूते, सेंडिल भरे थे ऊपर तक।
“अब बताओ मैं कैसे बंद करुँगी इसे? इतनी मेहनत से चंदू ने सिया था इसे। आखिर तुम लोगों ने इसे खोला ही क्यों?” लगा चाची रो ही पड़ेंगी।
पिटारी में चप्पलें देखते ही सब के सब छूमंतर हो गए। मिठाई होती, तो क्या ऐसे ही भाग जाते!
पकड़ी गई मैं। “हम समझे थे इसमें आप हमारे लिए ई
मिठा लाई हैं,” टिंकू ने अटक-अटक कर कहा। इस पर चाचा लगे जोर-जोर से हँसने और हँसते ही चले गए। 
हुँ! यह भी कोई हँसने की बात है। हमें तो रोना आ रहा है!
और चाची भी तो रुआँसी हो गई हैं, टिंकू की बात सुनकर वह एकदम मेज पर पड़ा अपना पर्स उठा कर नीचे चली गईं। जरुर मम्मी से हमारी शिकायत करने गई होंगी।
किसी तरह नीचे आकर मैं अपने पढ़ने के कमरे में चुपचाप बैठकर स्कूल का काम करने लगी। कितना सारा काम दिया था टीचर ने, पर इन चाचा-चाची के आने की खुशी में सब भूल ही गई थी।

छिः ! चाची-फाची! होली का सारा मजा ही किरकिरा हो गया!

पत्थर ही पत्थर

   
  
पत्थर ही पत्थर- शीला इंद्र
न जाने कौन बुद्धू होगा जिसने ‘फर्स्ट अप्रैल फूल’ बनाने का रिवाज चलाया होगा। मुझे ऐसी बातें बिल्कुल अच्छी नहीं लगतीं।
 
वीनू ने पिछले साल मुझे मूर्ख बनाया था। बड़ी पक्की सहेली की दुम बनती है। सारे में मेरी, वह खिल्ली उड़वाई थी कि मैं महीने भर वीनू से बोली नहीं। वह तो वीनू का
‘बर्थ डे’ न आता तो मैं उससे तब भी न बोलती।

मालूम है, उसने क्या किया था? उसने न जाने कैसे एक कागज पर गधे की तस्वीर बनाकर मेरी ड्रेस के पीछे चिपका दी थी। उस पर लिखा था-“मैं पत्थर हूँ। बच के निकलना!” सारे दिन सब बच्चे मेरा मजाक बनाते रहे-‘भई, बच के चलो, कहीं लग न जाए!’ और शाम को घर जाने पर मम्मी ने वह कागज निकालकर मुझे दिखाया था। यह बहादुरे का बच्चा है न हमारा नौकर, मुझे देखकर हँसते-हँसते लोटपोट हो गया था। बदतमीज कहीं का! मुझे ऐसा रोना आया था कि क्या बताऊँ!

वीनू और इन सबने मुझे तंग न किया होता, तो मैं कभी भी इन सबको ‘अप्रैल फूल’ बनाने की न सोचती। मैं हरगिज ऐसी बुद्धूपने की बातों में न पड़ती, पर क्या बताऊँ....।

जनवरी में हमारे पड़ोस की कोठी में एक एस.डी.ओ. साहब बदली हो कर आए थे। उनकी लड़की रेवा उम्र में हमारे ही बराबर है। पर वह मथुरा में ही अपनी बुआ के पास रह गई थी। लेकिन होली पर वह अपने पापा-मम्मी के पास आ गई थी। जिस दिन मथुरा लौटने वाली थी, उसी दिन उसे तेज बुखार आ गया और टायफायड हो गया। अब ठीक होकर वह चार-पाँच अप्रैल को वापस मथुरा जाने वाली थी।

मैंने भी सोचा कि रेवा के जन्मदिन के बहाने पिछले साल का बदला सबसे एक साथ लिया जाए- ऐसा बदला कि सारे के सारे हमेशा याद रखें!

पापा के एक दोस्त नाई की मंडी में रहते हैं। उनका लड़का परेश तेरह साल का है, मुझसे तीन-चार साल बड़ा। मैंने उसी को अपना हमराज बनाया। उसने बड़े सुंदर-सुंदर अक्षरों में एक निमंत्रण पत्र लिखा-रेवा की मम्मी की तरफ से, कि सब बच्चों को रेवा के जन्मदिन के उपलक्ष में पहली अप्रैल को चाय का निमंत्रण है। सभी बच्चे जरुर-जरुर आएँ। नीचे निमंत्रित बच्चों के नाम थे, जिनमें सबसे ऊपर मेरा नाम था। (जिससे किसी को मेरे ऊपर शक न हो) नीचे एक छोटी-सी सूचना भी थी कि कोई भी रेवा से इसका जिक्र न करें क्योंकि अचानक सबको देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता होगी। यह सब लिखवाने और किसी से न कहने के लिए परेश को पूरे डेढ़ रुपये वाली चाकलेट की घूस देनी पड़ी। मैंने सोचा था, आधी चाकलेट तो वह मुझे देगा ही और इस तरह मेरे आधे पैसे वसूल हो जाएँगे, पर उसने सिर्फ एक चौकोर टुकड़ा मेरे हाथ में थमा दिया, बाकी सब खुद हड़प गया। नदीदा कहीं का!

अब सवाल था, कि यह निमंत्रण किससे भिजवाया जाए। सो मैंने रेवा के घर की महरी को पकड़ा और खूब समझा दिया कि सिवाय रेवा के वह सबके पास इस चिट्ठी को देकर दस्तखत करा लाए। पर वह क्यों करने लगी मुफ्त में मेरा काम? और उसको भी पूरा एक रुपया इस काम के लिए देना पड़ा। मेरी गुल्लक में सवा तीन रुपये जमा हुए थे, उसी में से यह सब खर्चा किया था मैंने।

अब वीनू, पिंकी, छुन्नू, दीना, पाँचू सभी बड़े खुश। मैं भी बड़ी खुश। इसी के लिए तो ढ़ाई रुपये खर्च किए थे। जब भी सब मिले, तो यही बातें हुईं कि कौन क्या पहन कर पार्टी में जाएगा। रेवा के लिए कौन क्या उपहार ले जाएगा? पिंकी फाउंटेन पेन दे रही थी। वीनू की माँ एक राइटिंग पैड और लिफाफे लाई थी- यह सोचकर कि रेवा मथुरा में रहती है माँ-बाप को चिट्ठी लिखने के काम आएगा। साथ में तस्वीरों वाले पोस्ट कार्डों का सेट भी था। छुन्नू ने एक ग्लोब खरीदा था। दीना और पाँचू क्या ले जाएँगे, पता नहीं था, क्योंकि उन दोनों ही के पापा अभी तक कुछ लाए नहीं थे। मैंने भी कह दिया कि ‘मेरेपापा ने कहा है कि कोई बढ़िया चीज लाएँगे, देखों क्या लाकर देते हैं? मन ही मन मुझे बड़ी हँसी आ रही थी कि सारे के सारे खूब उल्लू बन रहे हैं।

दूसरे दिन ही पहली अप्रैल थी। सुबह से मेरे मन में शाम का नजारा देखने की बेचैनी थी। जब कि सबके सब अपने-अपने प्रेजेंट लेकर जाएँगे और रेवा और उसकी मम्मी परेशान-सी सब के मुँह ताकेंगी और घबड़ा कर कहेंगी कि ‘अरे, हमने तो किसी को नहीं बुलाया था। रेवा का जन्म दिन तो आज है भी नहीं।‘ उस समय सबकी खिसियानी सूरतें देखने काबिल होंगी। वाह, क्या मजा आएगा! सारे के सारे नदीदे मिठाई खाने के बदले पिटा-सा मुँह लेकर लौटेंगे।

कल पिंकी कह रही थी कि कहीं हमें ‘अप्रैल फूल’ तो नहीं बनाया जा रहा है, तो पाँचू और दीना दोनों ही बोले-“वाह, रेवा की मम्मी हमें क्यों बेवकूफ बनाने लगीं? यदि रेवा बुलाती तो कोई बात थी सोचने की।“ सभी ने यह बात मान ली थी।

सारे दिन स्कूल में मेरा मन नहीं लगा। लेकिन एक बात सबसे मुश्किल थी। वह यह कि मुझे तो मालूम ही है कि सबको बेवकूफ बनाया जा रहा है, इसलिए मैं जाऊँ या नहीं। बिना गए सब की खिसियानी सूरतें देखूँगी तो कैसे? जाऊँ तो कुछ प्रेजेंट ले जाना चाहिए या नहीं?

शाम को घर आकर मैंने जल्दी से एक डिब्बा लिया। उसमें खूब से कागज भरे, बीच में कागज लिपटा एक पत्थर रखा। उस पर लिखा ‘फर्स्ट अप्रैल फूल!’ फिर डिब्बे पर एक लाल कागज चढ़ाया और सादी-सी फ्रॉक पहन कर रेवा के घर चल दी। सोचा था बाहर से ही रेवा को दे दूँगी कि मुझे जरुरी काम से जाना है, मैं आ न सकूँगी।

रास्ते में सोचती जा रही थी कि ये लोग लौटते हुए या रेवा के घर से निकलते हुए दिखाई दे जाएँ, तो ही मजा रहे। पर न तो मुझे रास्ते में कोई दिखा, न रेवा के घर से निकलता हुआ ही मिला। हाय राम! कहीं ऐसा तो नहीं कि वे लोग आए ही न हों और सबको पता लग गया हो कि वे बुद्धू बनाए जा रहे हैं।

इसी उलझन में मैं बाहर के दरवाजे तक पहुँची, तो सामने महरी बैठी तमाखू खा रही थी। मुझे देखते ही काली-काली बत्तीसी निपोरकर बोली“आवौ्, मिन्नी रानी, आवौ। सबकै सब खाय रहे हैं। तुमहु जावौ, माल उड़ावौ। तुम्हार चिठिया ने तो खूब काम बनावौ।“

“क्या सब खा रहे हैं?” मैं हैरान-सी महरी का मुँह ताकती रह गई। “क्या कह रही है तू?”

तभी रेवा मुझे दरवाजे पर देखकर भागती हुई आई। “आओ, मिन्नी, आओ। तुमने बड़ी देर कर दी। तुम्हारा इंतजार करते-करते अभी-अभी खाना शुरु किया है।“

मैं घबड़ा गई। “क्या तेरा सचमुच आज जन्म दिन है।“

“अरे हाँ, सच ही तो है। और तू क्या मजाक समझ रही थी कि आज सबको ‘अप्रैल फूल’ बनाया जा रहा है?”

तभी पाँचू हाथ में मिठाई-नमकीन भरी प्लेट लेकर बाहर आ गया। (हाय! कितनी सारी चीजें थीं उसमें- सब मेरी पसंद की!)

मुँह में रसगुल्ला ठूँसते हुए पाँचू बोला, “वाह, मिन्नी रानी, इतनी देर कर दी तुमने! मैं तो रेवा से कह रहा था कि मिन्नी नहीं आएगी। उसकी प्लेट भी मुझे ही दे दो।“ फिर मेरे हाथ के डिब्बे पर झूकते हुए बोला, “वाह, बड़ा भारी प्रेजेंट ले कर आई हो तुम तो! क्या लाई हो इसमें?”

पत्थर लाई हूँ- मैंने मन ही मन कहा और रेवा जो मुझे पकड़ कर अंदर खींच रही थी, उसके हाथों से अपने को छुड़ाकर मैंने एकदम घबड़ाकर कहा, “रेवा, मैं तो समझी थी कि हमें बुद्धू बनाया जा रहा है।“

“हट पगली कहीं की, मम्मी भी तुम लोगों को बुद्धू बना सकती हैं क्या? पर देखो न, हर साल मम्मी से कहती थी पर उन्होंने कभी मेरा जन्म-दिन नहीं मनाया। कह देती थी- “पहली अप्रैल’ को कोई नहीं आएगाय सब समझेंगे “अप्रैल फूल” बना रहे हैं। अब की देखो, मम्मी ने बिना मुझे बताए ही सबको बुला लिया। सच, मम्मी बहुत अच्छी हैं.....अच्छा, अब चलो न.....” उसने अब फिर मेरा हाथ पकड़ लिया। पर मैं अपना हाथ छुड़ा कर तेजी से बाहर भागी- “रेवा, मैं बाद में आऊँगी ....” कहती हुई मैं भाग चली। रास्ते में फिर महरी दिख गई। बोली, “क्यों, रानी, लौट काहे आई? अरे, तुम्हारी चिठिया बहू जी ने पढ़ी थी, वो तुम से बहुत खुश हैं। जावौ तुम्हें डबल हिस्सा मिलेगा।“

तो यह बात है! इस महरी की बच्ची ने ही सारी गड़बड़ की..... पर रेवा का तो सचमुच आज ही जन्म-दिन है। छिः आज का दिन कोई पैदा होने का दिन होता है। तभी बुद्धू जैसी दिखती है..... पर...हाय! कितनी बढ़िया-बढ़िया चीजें थी पाँचू की प्लेट में!

मम्मी घर में होतीं, तो उनसे ही जल्दी से घर में से ही कुछ निकलवा कर रेवा के लिए ले जाती, पर उन्हें भी पार्टी में आज ही जाना था। साथ में टिंकू को भी ले गईं.... मैं यहाँ.... भगवान करे वह भी वहाँ खूब बुद्धू बनाई जाएँ!

मुझे इतना रोना आया कि पलंग पर गिरकर खूब रोई। तभी बहादुरे ने आ कर पूरा पैकेट खोल डाला” मिन्नी, यह क्या है? क्या लाई है तू....?”

“सिर लाई हूँ तेरा!” मैंने पैकेट उसके हाथ से झपटना चाहा कि उसमें से खुलकर सारे कागज और पत्थर भी नीचे गिर पड़े, जिन पर लिखा था “अप्रैल फूल!

सोनिया का संकोच

दिनेश चैमोला 'शैलेश' की कहानी


एक लड़की थी- सोनिया। वह बहुत कम बोलती थी, लड़ाई-झगड़ा तो रही दूर की बात,वह अपनी कक्षा में अध्यापक से भी कोई प्रश्न नहीं करती। इसीलिए सभी उसे संकोची लड़की के नाम से जानते। वैसे तो उसकी कक्षा में अन्य संकोची लड़कियाँ भी थीं, लेकिन बिल्कुल शांत रहने के कारण संकोची कहते ही जिसकी तसवीर उभरती वह सोनिया ही थी। उसके माता-पिता भी उसके इस स्वभाव से चिंतित रहते।

सोनिया के पिता सरकारी अधिकार थे। उनका सिर्फ दफ्तर में ही नहीं, समाज में भी दबदबा था। वह सोनिया के स्वभाव को लेकर चिंतित तो थे, लेकिन वह सोचते कि शायद यह उसका पैतृक गुण हो। क्योंकि वह खुद भी शुरू में बहुत संकोची थे, और बाद में ही मुखर हो सके थे।

जब छटी कक्षा तक संकोच ने सोनिया का पीछा नहीं छोड़ा तो उसकी माँ की चिंता बढ़ गई। क्योंकि लोग सोनिया को सीधी-सादी लड़की कहतें, तो माँ समझ जातीं कि वे उसे दब्बू व मूर्ख कहना चाहते हैं। एक दिन काजल की माँ ने व्यंग्य भरे लहजे में सोनिया की माँ से कहा, 'सोनिया की मम्मी, इस बात को गंभीरता से लो। लड़की का संकोची होना अच्छी बात नहीं है। आज की दुनिया तो ऐसी भोली लड़की की चैन से नहीं जीने देती। आप इसे किसी मनोचिकित्सक को दिखाएँ। जिनके घर में विचार-विमर्श, लिखने-पढ़ने का माहौल न हो, उनके बच्चे ऐसे हों तो कोई बात नहीं, लेकिन आपके घर में ।'

'नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, बच्चों का अपना-अपना स्वभाव होता हैं। आगे चलकर यह भी तेज हो जाएगी।' कहकर सोनिया की माँ ने काजल की माँ को टालना चाहा। उन्हें काजल की माँ की बात अच्छी नहीं लगी थी।

सोनिया अपनी कक्षा में बोलने में जितनी संकोची थी, उतनी ही पढ़ाई-लिखाई में होशियार थी। यह बात उसके घर वालों के साथ-साथ अध्यापकों को भी पता थी। कक्षा की अधिकांश लड़कियों का ध्यान पढ़ने में कम, दूसरी बातों में अधिक रहता। कक्षा में भी वे पढ़ाई की कम और इधर-उधर की बातें ज्यादा करतीं। वे अपने अध्यापक-अध्यापिकाओं की नकल उतारती रहतीं। इन्हीं लड़कियों में से नीरू, सीमा और पर्णिका सोनिया की सहेलियाँ बन गई।

अध्यापक जब ब्लैक बोर्ड पर सवाल लिखने खड़े होते तो सीमा व नीरू अपने-अपने बस्तों से कागज की लंबी पूँछ निकालने लग जातीं। जब बच्चे अध्यापक के प्रश्न का उत्तर देने खड़े होते तो उनके पीछे कागज की पूँछ देखकर पूरी कक्षा में ठहाका लगता। सोनिया को यह बुरा तो लगता, लेकिन अपने संकोची स्वभाव के कारण उनकी शिकायत नहीं कर पाती थी। वैसे वो अध्यापक भी सोनिया की इन सहेलियों को मुँह नहीं लगना चाहते थे। वे जब-तब अध्यापकों को भी भला-बुरा कहने में न हिचकिचाती थीं। इसलिए कोई भी अध्यापक उनसे कुछ भी न पूछता था। इससे निर्भय होकर उनकी शरारतें और भी बढ़ गई थीं।

एक दिन सोनिया की माँ को कहीं नीरू और पर्णिका मिल गई। वे दोनों लगीं सोनिया की बुराई करने लगीं, 'आंटी, सोनिया बिल्कुल भी नहीं पढ़ती। जब सर उससे कुछ पूछते हैं तो वह जवाब भी नहीं देती। बस रोने बैठ जाती है। वह स्कूल का काम भी पूरा नहीं करतीं, टेस्ट में उसका 'सी' आता है। डर के मारे वह ठीक से चल भी नहीं पाती। वह इतना धीरे चलती हैं कि चलने में भी संकोच लगता है। वह बहुत डरपोक हैं, आंटी।'

सोनिया की माँ ने उसके पिता से उसकी सहेलियों की बात बताई। सोनिया भी वहीं थीं, लेकिन उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया। पिता ने जब सोनिया की रिपोर्ट-बुक देखी तो उसे किसी भी विषय में 'सी' ग्रेड नहीं मिला था। वह हर विषय में अच्छे नंबर लाई थी।

आखिरकार सोनिया के पिता ने सोनिया को अपने पास बुलाया और कहा, 'देखो बेटी, तुम पढ़ने में तेज हो, तुम्हारा स्वास्थ्य अच्छा है, तुम किसी से कम नहीं हो, फिर तुम इन लड़कियों की बकवास बातों का प्रतिरोध क्यों नहीं करती हो? इनके सामने चुप मत रहो, इन्हें समझाओ कि वे गलत कर रही हैं, अगर नहीं मानती तो इनसे किनारा कर लो।

सबसे अच्छी मित्र तो किताबें ही होती हैं, जो आगे बढ़ने का रास्ता दिखाती हैं। जबकि तुम्हारी ऐसी सहेलियाँ कभी नहीं चाहेंगी कि तुम अपना नाम रोशन करो। डरती तुम नहीं, डरती तो वे हैं। उन्हें इस बात का डर है कि तुम्हारे अगर अच्छे नंबर आएँगे तो उनकी पोल खुलेगी। तुम्हें किस बात का डर? न तो तुमने कोई चोरी की है, न किसी से उधार लिया है। तुम क्यों डरोगी? बस तुम्हें मुखर होना है, अपनी इन सहेलियों से पढ़ाई का कोई न कोई प्रश्न करती रहोगी तो वे या तो पढ़ने में रूचि लेंगी या फिर खुद तुमसे दूर हो जाएँगी। कोई गलत बात कहता है तो तर्कों का सहारा लो। तुम्हारे पास ज्ञान का भंडार है, फिर संकोच कैसा?'

पिता की बात का सोनिया पर गहरा असर हुआ था। वह बोली, 'पापा, आप यह समझिए कि मेरे डर और संकोच का यह आखिरी दिन हैं। अब अगर कोई मेरे बारे में ऐसी बात करेगा तो मैं उसे देख लूँगी। पढ़ाई-लिखाई में मैं उन लड़कियों से ज्यादा तेज हूँ, मुझे उनसे ज्यादा बोलना आता है। एक दिन मैं आपको कुछ बनकर दिखाऊँगी।' सोनिया के चेहरे से आत्मविश्वास फूट रहा था। सोनिया की माँ ने उसे सीने से लगा लिया।

साहसी की सदा विजय

ओम प्रकाश कश्यप


एक बकरी थी। एक उसका मेमना। दोनों जंगल में चर रहे थे। चरते - चरते बकरी को प्यास लगी। मेमने को भी प्यास लगी। बकरी बोली - 'चलो, पानी पी आएँ।' मेमने ने भी जोड़ा, 'हाँ माँ! चलो पानी पी आएँ।'

पानी पीने के लिए बकरी नदी की ओर चल दी। मेमना भी पानी पीने के लिए नदी की ओर चल पड़ा।

दोनों चले। बोलते-बतियाते। हँसते-गाते। टब्बक-टब्बक। टब्बक-टब्बक। बातों-बातों में बकरी ने मेमने को बताया - 'साहस से काम लो तो संकट टल जाता है। धैर्य यदि बना रहे तो विपत्ति से बचाव का रास्ता निकल ही आता है।

माँ की सीख मेमने ने गाँठ बाँध ली। दोनों नदी तट पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर बकरी ने नदी को प्रणाम किया। मेमने ने भी नदी को प्रणाम किया। नदी ने दोनों का स्वागत कर उन्हें सूचना दी, 'भेड़िया आने ही वाला है। पानी पीकर फौरन घर की राह लो।'

'भेड़िया गंदा है। वह मुझ जैसे छोटे जीवों पर रौब झाड़ता है। उन्हें मारकर खा जाता है। वह घमंडी भी है। तुम उसे अपने पास क्यों आने देती हो। पानी पीने से मना क्यों नही कर देती।' मेमने ने नदी से कहा। नदी मुस्कुराई। बोली- 'मैं जानती हूँ कि भेड़िया गंदा है। अपने से छोटे जीवों को सताने की उसकी आदत मुझे जरा भी पसंद नहीं है। पर क्या करूँ। वह जब भी मेरे पास आता है, प्यासा होता है। प्यास बुझाना मेरा धर्म हैं। मैं उसे मना नहीं कर सकती।'

बकरी को बहुत जोर की प्यास लगी थी। मेमने को भी बहुत जोर की प्यास लगी थी। दोनों नदी पर झुके। नदी का पानी शीतल था। साथ में मीठा भी। बकरी ने खूब पानी पिया। मेमने ने भी खूब पानी पिया।

पानी पीकर बकरी ने डकार ली। पानी पीकर मेमने को भी डकार आई।

डकार से पेट हल्का हुआ तो दोनों फिर नदी पर झुक गए। पानी पीने लगे। नदी उनसे कुछ कहना चाहती थी। मगर दोनों को पानी पीते देख चुप रही। बकरी ने उठकर पानी पिया। मेमने ने भी उठकर पानी पिया। पानी पीकर बकरी मुड़ी तो उसे जोर का झटका लगा। लाल आँखों, राक्षसी डील-डौल वाला भेड़िया सामने खड़ा था। उसके शरीर का रक्त जम-सा गया।

मेमना भी भेड़िये को देख घबराया। थोड़ी देर तक दोनों को कुछ न सूझा।

'अरे वाह! आज तो ठंडे जल के साथ गरमागरम भोजन भी है। अच्छा हुआ जो तुम दोनों यहाँ मिल गए। बड़ी जोर की भूख लगी है। अब मैं तुम्हें खाकर पहले अपनी भूख मिटाऊँगा। पानी बाद में पिऊँगा।

तब तक बकरी संभल चुकी थी। मेमना भी संभल चुका था।

'छि; छि; कितने गंदे हो तुम। मुँह पर मक्खियाँ भिनभिना रही है। लगता है महीनों से मुँह नहीं धोया। मेमना बोला। भेड़िया सकपकाया। बगले झाँकने लगा।

'जाने दे बेटा। ये ठहरे जंगल के मंत्री। बड़ों की बड़ी बातें। हम उन्हें कैसे समझ सकते हैं। हो सकता है भेड़िया दादा ने मुँह न धोने के लिए कसम उठा रखी हो।' बकरी ने बात बढ़ाई।

'क्या बकती है। थोड़ी देर पहले ही तो रेत में रगड़कर मुँह साफ किया है।' भेड़िया गुर्राया।

'झूठे कहीं के। मुँह धोया होता तो क्या ऐसे ही दिखते। तनिक नदी में झाँक कर देखो। असलियत मालूम पड़ जाएगी।' हिम्मत बटोर कर मेमने ने कहा।

भेड़िया सोचने लगा। बकरी बड़ी है। उसका भरोसा नहीं। यह नन्हाँ मेमना भला क्या झूठ बोलेगा। रेत से रगड़ा था, हो भी सकता है वहीं पर गंदी मिट्टी से मुँह सन गया हो । ऐसे में इन्हें खाऊँगा तो नाहक गंदगी पेट में जाएगी। फिर नदी तक जाकर उसमें झाँककर देखने में भी कोई हर्जा नहीं है। ऐसा संभव नहीं कि मैं पानी में झाँकू और ये दोनों भाग जाएँ। "ऊँह, भागकर जाएँगे भी कहाँ। एक झपट्टे में पकड़ लूँगा।

'देखो! मैं मुँह धोने जा रहा हूँ। भागने की कोशिश मत करना। वरना बुरी मौत मारूँगा।' भेड़िया ने धमकी दी। बकरी हाथ जोड़कर कहने लगी, 'हमारा तो जन्म ही आप जैसों की भूख मिटाने के लिए हुआ है। हमारा शरीर जंगल के मंत्री की भूख मिटानै के काम आए हमारे लिए इससे ज्यादा बड़ी बात भला और क्या हो सकती है। आप तसल्ली से मुँह धो लें। यहाँ से बीस कदम आगे नदी का पानी बिल्कुल साफ है। वहाँ जाकर मुँह धोएँ। विश्वास न हो तो मैं भी साथ में चलती हूँ।'

भेड़िये को बात भा गई। वह उस ओर बढ़ा जिधर बकरी ने इशारा किया था। वहाँ पर पानी काफी गहरा था। किनारे चिकने। जैसे ही भेड़िये ने अपना चेहरा देखने के लिए नदी में झाँका, पीछे से बकरी ने अपनी पूरी ताकत समेटकर जोर का धक्का दिया। भेड़िया अपने भारी भरकम शरीर को संभाल न पाया और 'धप' से नदी में जा गिरा। उसके गिरते ही बकरी ने वापस जंगल की दिशा में दौड़ना शुरू कर दिया। उसके पीछे मेमना भी था।

दोनों नदी से काफी दूर निकल आए। सुरक्षित स्थान पर पहुँचकर बकरी रुकी। मेमना भी रुका। बकरी ने लाड़ से मेमने को देखा। मेमने ने विजेता के से दर्प साथ अपनी माँ की आँखों में झाँका। दोनों के चेहरों से आत्मविश्वास झलक रहा था। बकरी बोली --
‘कुछ समझे?'
'हाँ समझा।'
'क्या ?
'साहस से काम लो तो खतरा टल जाता है।'
'और?'
'धैर्य यदि बना रहे तो विपत्ति से बचने का रास्ता निकल ही आता है।'
'शाबाश!' बकरी बोली। इसी के साथ वह हँसने लगी। माँ के साथ-साथ मेमना भी हँसने लगा।

सैर

पूर्णिमा वर्मन

रविवार का दिन था। सबकी छुट्टी थी। आसमान साफ था और ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी। सूरज की किरणें शहर के ऊपर बिखरी थीं। धूप में गरमी नहीं थी। मौसम सुहावना था। बिलकुल वैसा जैसा एक पिकनिक के लिए होना चाहिये। मन्नू सोचने लगा, काश! आज हम कहीं घूमने जा सकते।
 
मन्नू रसोई में आया। माँ बेसिन में बर्तन धो रही थी।
"माँ क्या आज हम कहीं घूमने चल सकते हैं?" मन्नू ने पूछा।
"क्यों नही, अगर तुम्हारा स्कूल का काम पूरा हो गया तो हम ज़रूर घूमने चलेंगे।" माँ ने कहा।
"मैं आधे घंटे के अंदर स्कूल का काम पूरा कर सकता हूँ।" मन्नू ने कहा।
मन्नू स्कूल का काम करने बैठ गया।
"हम कहाँ घूमने चलेंगे?" मन्नू ने पूछा।
"बाबा और मुन्नी ने गांधी पार्क का कार्यक्रम बनाया है।" माँ ने बताया।
"यह पार्क तो हमने पहले कभी नहीं देखा?" मन्नू ने पूछा।
"हाँ, इसीलिये तो।" माँ ने उत्तर दिया।
मन्नू काम पूरा कर के बाहर आ गया।
"क्या गांधी पार्क बहुत दूर है?" मुन्नी ने पूछा।
"हाँ, हमें कार से लम्बा सफर करना होगा।" बाबा ने बताया।
सुबह के काम पूरे कर के सब लोग तैयार हुए। माँ ने खाने पीने की कुछ चीज़ें साथ में ली और वे सब कार में बैठ कर सैर को निकल पड़े।
रास्ता मज़ेदार था। सड़क के दोनो ओर पेड़ थे। हरी घास सुंदर दिखती थी। सड़क पर यातायात बहुत कम था। सफ़ेद रंग के बादल आसमान में उड़ रहे थे। बाबा कार चला रहे थे। मुन्नी ने मीठी पिपरमिंट सबको बांट दी। कार में गाने सुनते हुए रास्ता कब पार हो गया उन्हें पता ही नहीं चला। बाबा ने कार रोकी। माँ ने कहा सामान बाहर निकालो अब हम उतरेंगे।
गांधी पार्क में अंदर जा कर मुन्नी ने देखा चारों तरफ हरियाली थी। वह इधर-उधर घूमने लगी। बहुत से पेड़ थे। कुछ दूर पर एक नहर भी थी। नहर के ऊपर पुल था। उसने पुल के ऊपर चढ़ कर देखा। बड़ा सा बाग था। एक तरफ फूलों की क्यारियाँ थीं। थोड़ा आगे चल कर मुन्नी ने देखा गाँधी जी की एक मूर्ति भी थी।
घूमते-घूमते मुन्नी को प्यास लगने लगी। माँ ने मुन्नी को गिलास में संतरे का जूस दिया। माँ और बाबा पार्क के बीच में बने लंबे रास्ते पर टहलने लगे। मुन्नी फूलों की क्यारियों के पास तितलियाँ पकड़ने लगी। तितलियाँ तेज़ी से उड़ती थीं और आसानी से पकड़ में नहीं आती थीं। तितलियों के पीछे दौड़ते-दौड़ते जब वह थक गयी तो एक पेड़ के नीचे सुस्ताने बैठ गयी।
उसने देखा पार्क में थोड़ी दूर पर झूले लगे थे। मन्नू एक फिसलपट्टी के ऊपर से मुन्नी को पुकार रहा था,
"मुन्नी मुन्नी यहाँ आकर देखो कितना मज़ा आ रहा है।"
मुन्नी आराम करना भूल कर झूलों के पास चली गयी। वे दोनों अलग अलग तरह के झूलों का मज़ा लेते रहे।
"मन्नू - मुन्नी बहुत देर हो गयी? घर नहीं चलना है क्या?"
माँ और बाबा बच्चों से पूछ रहे थे।
दोनों बच्चे भाग कर पास आ गए।
"पार्क कैसा लगा बच्चों?" माँ ने पूछा।
"बहुत बढ़िया" मन्नू और मुन्नी ने कहा। वे खुश दिखाई देते थे।
चलो, अब वापस चलें, फिर किसी दिन दुबारा आ जाएँगे।" बाबा ने कहा।
सफर मज़ेदार था। दिन सफल हो गया। बच्चों ने सोचा।
सब लोग कार में बैठ गए। बाबा ने कार मोड़ी और घर की ओर ले ली। मौसम अभी भी बढ़िया था। मुन्नी फिर से सबको मीठी पिपरमिंट देना नहीं भूली। सैर की सफलता के बाद सब घर लौट रहे थे।

रघु और मैं

- नीलिमा सिंह


दीवाली की रात थी। सारे मुहल्ले में रंग-बिरंगी बत्तियां झिलमिल-झिलमिल कर रही थीं। मैं अपनी छत पर खड़ा देख रहा था। वह दृश्य मेरे मन को मुग्ध कर रहा था।

सामने वाला घर तेल के दीयों और मोमबत्तियों के प्रकाश से जगमगा रहा था। उसके छज्जे पर खड़ा लड़का एक के बाद एक पटाखे छोड़ता जा रहा था। उसने अनार जलाया जिससे रंग-बिरंगा फव्वारा फूट पड़ा। फिर एक रॉकेट छोड़ा। वह आवाज करता हुआ सर्र से ऊपर उड़ा। वह बहुत ऊँचाई पर जाकर आकाश में फटा तो उसमें से रंग-बिरंगे तारे निकलकर चारों ओर फैल गए।

मैं भी रॉकेट छोड़ना चाहता था। मैं भी अनार जलाना चाहता था और चमकती हुई फुलझड़ी को हाथ में लेने को उत्सुक था। मैं ललचाए मन से उसकी ओर देख रहा था कि उसने मुझे अपनी ओर घूरते हुए देख लिया।

"तुम भी पटाखे चलाओगे?" उसके पूछते ही मैंने हाँ में सिर हिलाया।

उसने एक पुराने कागज में कुछ लपेटा और मेरी ओर फेंक दिया। उसमें कई तरह के पटाखे और एक माचिस की डिब्बी थी। मैंने एक के बाद एक पटाखे छोड़ने शुरू कर दिए। बड़ा मजा आ रहा था।

"तुम्हारा नाम क्या है?" लड़के ने पूछा।
"अशरफ।"
"मेरा नाम रघु है," उसने कहा और इस प्रकार रघु और मै मित्र बन गए।

हम पड़ोसी थे। आमने-सामने के घरों में रहते थे। बस एक गली बीच में थी। न जाने क्यों, हमारे माता-पिता कभी आपस में नहीं मिलते थे। शायद एक-दूसरे को जानते भी न हों। लेकिन हमारी मित्रता दिन पर दिन गहरी होती जा रही थी। दोपहर को जब दोनों घरों में माता-पिता आराम करते, हम दोनों गुल्ली-डंडा, कंचे खेल रहे होते। यह हमारा रोज का नियम बन गया था।

रघु को मिठाई बहुत पसन्द थी। जब ईद आयी तो मैंने उसे बताया कि मेरी अम्मी बहुत स्वादिष्ट सेंवई बनाती हैं। सेंवई में डाले गये बादाम, किशमिश और ऊपर से लगाये चाँदी के वर्क से सजे होने की बात सुनकर उसके मुँह में पानी भर आया।

"तुम सेंवई खाने अवश्य आना," मैंने रघु को आमंत्रित किया।
"लेकिन आऊंगा कैसे? अम्मा आने नहीं देगी," रघु बोला।
"अपनी अम्मा को मत बताना बस।" वह मान गया।

ईद के दिन नया रेशमी कुरता और कसीदा कढ़ी हुई टोपी पहन कर मैं चमक रहा था। ये दोनों चीजें अब्बा कश्मीर से आज के दिन पहनने के लिए ही लाए थे। मैं अपनी सजधज रघु को दिखाने के लिए बेचैन था।

दोपहर में घंटी बजते ही मैंने लपक कर द्वार खोला। रघु था। अम्मी रसोई में अपनी सहेलियों के साथ व्यस्त थीं। उनकी एक सहेली ने पूछा, "कोन है?" तो मैंने तपाक से उत्तर दिया, "रघु।"
"वही रघु जो हमारे घर के सामने रहता है।
"अच्छा उन सामने वालों का लड़का है। लेकिन हमारा उनसे क्या वास्ता। उसे कहो कि वह चला जाये, "अम्मी की सहेली ने कहा।
"लेकिन क्यों?"
"बहस मत करो। जो कहा है, करो।"

इससे पहले कि मैं कुछ कहता, रघु मुड़कर आगे बढ़ गया। अम्मी की पुकार को अनसुनी करते हुए मैं उसके पीछे दौड़ा। "सुनो, मैं तुम्हारे लिए सेंवई ला रहा हूँ।"
"मुझे नहीं चाहिए, " उसने कहा।

मैं उसे जाने नहीं देना चाहता था। मैंने लपक कर उसको पकड़ लिया।
"मगर मैं चाहता हूँ कि तुम खाओ। ऐसा करो तुम स्टेशन के सामने वाले पार्क में आ जाओ। हम वहीं मिलेंगे और दोनों सेंवई खायेंगे।"
"तुम बहुत जिद्दी हो, अशरफ, " हँसते हुए रघु ने कहा।

मैंने अपने स्कूल के टिफिन बॉक्स में सेंवई भरीं और पार्क में जा पहुँचा। हम दोनों ने खूब चटखारे ले लेकर सेंवईं खाई। देखते ही देखते टिफिन बिलकुल साफ हो गया।

"मुझे समझ नहीं आता कि हमारे परिवार एक-दूसरे से बात क्यों नहीं करते?" रघु ने चिन्तित स्वर में पूछा।
"मुझे लगता है कोई पुराना झगड़ा है, मुगल काल के जमाने से ही हमारे पूर्वज यहाँ रहते आ रहे हैं।" "हमारे भी। वे यहाँ गदर के समय से हैं।"
"इतनी पुरानी शत्रुता बनाये रखना क्या मूर्खता नहीं है?"
"हाँ, है तो।"

इतने में हमारा ध्यान शोर से भंग हुआ। जहाँ से आवाज आ रही थी वहाँ पर भीड़ जमा थी। सफेद धोती, कुरता और टोपी पहने एक आदमी भाषण दे रहा था। तभी उसने गुस्से से मुक्का दिखाया, जिससे भीड़ ताली बजाने लगी। भाषण जैसे-जैसे जोर पकड़ता जा रहा था, भीड़ में भी उत्तेजना बढ़ती जा रही थी। भाषण खतम होते ही भीड़ उस आदमी के पीछे चल पड़ी।
"वे किधर जा रहे है?" हम दोनों एक साथ चिल्ला उठे।

रास्ता चलते एक व्यक्ति ने चेतावनी-सी दी, "ऐ बच्चे घर भाग जाओ। यह उत्तेजित भीड़ अवश्य ही कुछ हंगामा करेगी।" हम फौरन उठे और घर की ओर भागने लगे। भीड़ को उधर ही आते हुए देखकर हमें घबराहट होने लगी। हमने रास्ता काटकर पगडंडी पकड़ी ताकि भीड़ से पहले अपनी गली में पहुँच जाएं।

दुकानदार जल्दी-जल्दी दुकानें बन्द कर रहे थे। औरतें अपने-अपने बच्चों को पुकार रहीं थीं। गली में एकदम सन्नाटा छा गया था। बस हम दोनों ही वहाँ रह गए थे।

"अशरफ," रघु ने मुझे रोकते हुए कहा, "भीड़ थोड़ी देर में इधर आ जायेगी। ऐसा लग रहा है कि वे लोग लूटपाट करना चाहते हैं। हमें उन्हें आगे बढ़ने से रोकना होगा।"
"तुम पागल हो गए हो? वे क्या तुम्हारी बात सुनेंगे? मैंने चिल्लाते हुए पूछा।
"उन्हें सुननी ही पड़ेगी हमारी बात" रघु ने दृढ़ता से कहा। "उन्हें समझना पड़ेगा। जब हम दोनों बच्चे होकर भी मिलकर दीवाली और ईद मना सकते हैं तो वे बड़े और समझदार होकर भी हमारी तरह दोस्त क्यों नहीं बन सकते।"

रघु ने कसकर मेरा हाथ पकड़ा और मुझे ले चला और जाकर गली के मोड़ पर खड़ा हो गया। मुझे डरता देख उसने पूछा, "क्यों अशरफ तुमने गांधी फिल्म देखी थी न?"
"हाँ। पर..."
"बापू कभी नहीं डरे थे। तब भी नहीं जब उन पर लाठियां बरस रही थीं।"

जब भीड़ हमारे करीब आई तो हम एक-दूसरे का हाथ पकड़कर खड़े हो गये। हम चिल्लाये। भीड़ एकाएक अचकचा कर रूक गई।

"बच्चो! रास्ता छोड़ दो," उनका नेता गुर्राया। औरों ने भी हमें धमकाते हुए रास्ता छोड़ने और मार्ग से हटने को कहा।

हमने भी उसी तरह पूरा जोर लगाकर और चिल्लाकर कहा, "इस गली में हमारे घर हैं। हम तुम्हें अन्दर नहीं घुसने देंगे।"
"क्या, ये गुस्ताखी?"

हमने पत्थर उठा लिए और चिल्लाये, "चले जाओ यहाँ से, इससे पहले कि हम तुम्हें मारें।"

उनके नेता ने आगे बढ़कर पूछा, "क्या बात है? तुम हमें क्यों रोक रहे हो? हमें आगे बढ़ने दो।"
"नहीं, कभी नहीं।" हमने दृढ़तापूर्वक कहा।

अचानक एक गुण्डे किस्म के नौजवान ने रघु को जोर से धक्का दिया। वह मुँह के बल धरती पर जा गिरा। उसका सिर एक पत्थर से टकराया और माथे से खून बहने लगा। नेता ने उसे उठाया और पूछा, "चोट लगी है न? तुम्हारा नाम क्या है?"

रघु की चोट देखकर मैं आग बबूला हो गया। रघु उसकी बात का उत्तर देता इससे पहले ही मैं उस पर झपटा और दोनों हाथों से उसपर घूँसे बरसाने लगा। और घूँसे मारते-मारते उसकी बात का उत्तर देने लगा, "यह रघु है, मेरा मित्र। और मेरा नाम है अशरफ। हम दोनों इस गली में रहते हैं। और हम तुम्हें इस गली में कोई उत्पात नहीं मचाने देंगे।"

यह कहते हुए मुझे लग रहा था कि पूरी भीड़ मुझ पर टूट पड़ेगी। लेकिन भीड़ मूर्तिवत खड़ी थी। उनका नेता बुदबुदाया, "रघु और अशरफ!" फिर भीड़ की ओर मुड़कर बोला, "जब ये दोनों दोस्त हो सकते हैं तो हम क्यों नहीं हो सकते? चलो, सब लोग अपने-अपने घरों को लौट जाओ। मैं जा रहा हूँ इन दोनों के माता-पिता के पास यह बताने कि कितने बहादुर और बुद्धिमान हैं, उनके ये दोनों बच्चे।

लाल गुब्बारा



गली में गुब्बारेवाला था। नैना ने उसकी आवाज़ सुनी और दौड़ कर बाहर आई।
गुब्बारे वाले के हाथ में पाँच गुब्बारे थे। दो लाल, एक पीला, एक हरा और एक गुलाबी। एक गाड़ी भी थी। गाड़ी पर पीली छतरी थी। छतरी बड़ी थी। सबको छाया देती थी। गाड़ी में रंग ``बिरंगे गुब्बारे भरे हुए थे।
नैना ने सोचा वह अपनी फ्राक जैसा लाल गुब्बारा लेगी।
"मुझे एक गुब्बारा चाहिये।" नैना ने कहा।
"क्या तुम्हारे पास पैसे हैं?" गुब्बारेवाले ने पूछा।
"लाल गुब्बारा कितने का है? मैं माँ से पैसे ले कर आती हूँ।" नैना ने कहा।
"दो रूपये ले कर आना।" गुब्बारेवाले ने कहा।

नैना माँ के पास से पैसे लेकर आई। गुब्बारे वाले को पैसे दिये और लाल गुब्बारा खरीदा।
गुब्बारा लेकर नैना गली में खेलने लगी। गली में भीड़ नहीं थी। लाल गुब्बारा पतंग की तरह लहरा रहा था। नैना धागे को उँगली पर लपेट लेती तो गुब्बारा उसके पास आ जाता। वह उसको गाल से लगाती तो नरम नरम लगता। रगड़ती तो मज़ेदार आवाज़ करता। वह धागे को छोड़ देती तो लाल गुब्बारा फिर से दूर आसमान में उड़ने लगता। वह दौड़ती तो गुब्बारा भी साथ साथ ऊपर चलता।

गली में खेलना नैना को अच्छा लगता था। खेल में बड़ा मज़ा था। नैना देर तक खेलती रही। लाल गुब्बारा उसका दोस्त बन गया। उसने लाल गुब्बारे का नाम 'लालू' रख दिया।

"बहुत देर हो गयी नैना, खेलना बंद करो और खाना खा लो।" माँ ने भीतर से आवाज़ दी।
नैना को भी भूख लग रही थी। "आती हूँ माँ," नैना ने जवाब दिया।


लेकिन वो लाल गुब्बारे के साथ खाना कैसे खाएगी, नैना ने सोचा। उसने गुब्बारे के धागे को दरवाज़े की कुंडी से बाँध दिया।
"लालू, मैं खाना खा लूँ तब तक तुम यहीं रहना। बाद में हम दोनों मिल कर फिर खेलेंगे।" नैना ने कहा।
शायद नैना ठीक से बाँध नहीं पायी। धागा खुल गया और लाल गुब्बारा आसमान में उड़ गया। 

नैना उसको पकड़ने के लिये दौड़ी पर वह ऊपर जा चुका था। नैना धागा नहीं पकड़ पाई। उसकी आँखों में आँसू आ गए। वह रोने लगी।

माँ ने कहा, "रो मत। कल नया गुब्बारा ले लेना।

भगवान के भरोसे


- वीरेन्द्र सिंह
 

सूर्य अस्त हो चला था। आकाश में बादल छाए हुए थे। नीम के एक पेड़ पर ढेर सारे कौवे रात बिताने के लिए बैठे हुए थे। कौवे अपनी आदत के अनुसार, आपस में एक-दूसरे से काँव-काँव करते हुए झगड़ रहे थे। उसी समय एक मैना आई और रात बिताने के लिए नीम के उस पेड़ की एक डाल पर बैठ गई। मैना को देखकर सभी कौवे उसकी ओर देखने लगे।

बेचारी मैना सहम गई। डरते हुए बोली, "अँधेरा हो गया है। आसमान मे बादल छाए हुए है। किसी भी समय पानी बरस सकता है। मैं अपना ठिकाना भूल गई हूँ। आज रात भर मुझे भी इस पेड़ की एक डाल के एक कोने में रात बिता लेने दो।"

कौवे भला कब उसकी बात मानते। उन्होंने कहा, "यह नहीं हो सकता। यह पेड़ हमारा है। तुम इस पेड़ नहीं बैठ सकती हो। भागो यहाँ से।"

कौवों की बात सुनकर बड़े ही दीन स्वर में मैना बोली, "पेड़ तो सभी भगवान के हैं। यदि बरसात होने लगी और ओले पड़ने लगे, तो भगवान ही सबको बचा सकता है। मैं बहुत छोटी हूँ। तुम लोगों की बहन हूँ। मेरे ऊपर दया करके रात बिता लेने दो।"

मैना की बात सुनकर सभी कौवे हँसने लगे। फिर बोले, "हम लोगों को तेरी जैसी बहन की कोई जरूरत नहीं है। तू भगवान का नाम बहुत ले रही है, तो भगवान के सहारे यहाँ से जाती क्यों नहीं? यदि तू यहाँ से नहीं जाएगी, तो हम सब मिलकर तुझे मार भगाएँगे।" और सभी कौवे मैना को मारने के लिए उसकी ओर दौड़ पड़े।

कौवों को काँव-काँव करते हुए अपनी ओर आते देखकर मैना वहाँ से जान बचाकर भागी। वहाँ से थोड़ी दूर एक आम के पेड़ पर अकेले ही रात बिताने के लिए मैना एक कोने में छिपकर बैठ गई।

रात में तेज हवा चली। कुछ देर बाद बादल बरसने लगे और इसके साथ ही बड़े-बड़े ओले भी पड़ने लगे। ओलों की मार से बहुत से कौवे घायल होकर जमीन पर गिरने लगे। कुछ तो मर भी गए।

मैना आम के जिस पेड़ पर बैठी थी, उस पेड़ की एक डाल टूट गई। आम की वह डाल अन्दर से खोखली थी। डाल टूटने की वजह से डाल के अन्दर के खाली स्थान में मैना छिप गई। डाल में छिप जाने की वजह से मैना को न तो हवा लगी और न ही ओले ही उसका कुछ बिगाड़ पाए। वह रात भर आराम से बैठी रही।

सवेरा होने पर जब सूरज निकला, तो मैना उस खोह से निकली और खुशी से गाती-नाचती हुई ईश्वर को प्रणाम किया। फिर आकाश में उड़ चली। मैना को आराम से उड़ते हुए देखकर, जमीन पर पड़े घायल कौवों ने कहा, "अरी मैना बहन, तुम रात को कहाँ थीं? तुम्हें ओलों की मार से किसने बचाया?"

मैना बोली, "मैं आम की डाली पर बैठी ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि हे ईश्वर! दुखी और असहाय लोगों की रक्षा करना। उसने मेरी प्रार्थना सुन ली और उसी ने मेरी भी रक्षा की।"

मैना फिर बोली, "हे कौवों सुनो, भगवान ने केवल मेरी रक्षा ही नहीं की। वह तो जो भी उस पर विश्वास करता है और उसकी प्रार्थना करता है, उसे याद करता है, तथा भरोसा करता है, ईश्वर उसकी रक्षा अवश्य ही करता है और कठिन समय में उसे बचाता भी है।

बेंजी का बड़ा दिन



- नीलिमा सिन्हा

 
बड़े दिन की पूर्व संध्या थी। गलियाँ और बाजार परियों की नगरी जैसे सजे हुए थे। बाजार में सब दुकानों पर लाल, नीली, हरी, पीली बत्तियाँ तारों की तरह टिमटिमा रही थीं। सभी दुकानें जगमगा रही थीं। उनमें सजाया हुआ बड़े दिन का सामान मन को लुभा रहा था।
वहाँ तीन दुकानें ऐसी थीं जो क्रिस्मस पेड़ बेच रहीं थीं। छोटे, बड़े सभी तरह के पेड़ थे। उनमें कुछ असली थे, कुछ बनावटी भी थे। ये पेड़ बड़े आकर्षक ढँग से सजे हुए थे। सब चाँदी और सोने के रिबनों, रंगीन चमकदार गेंदों से सजे झिलमिला रहे थे।

बेंजी एक दुकान के बाहर खड़ा होकर एक पेड़ को देखने लगा। उसने सोचा, 'काश! किसी तरह मुझे यह पेड़ मिल जाये। सैमी और रूथ पेड़ पाकर कितनी खुश होंगी। फिर उनका यह सबसे बेहतर क्रिस्मस होगा।' उसे ध्यान आया उस पेड़ का जो उसने सबसे बड़ी दुकान में देखा था। 'मुझे वही खरीदना है' यह सोचकर वह अन्दर गया। उसने मालिक से उस पेड़ की ओर इशारा करते हुए दाम पूछे। दुकान के मालिक मोटे और गंजे मि. अब्राहम ने पहले ऊपर से नीचे तक बेंजी को देखा। फिर बेंजी की कमीज के दाई ओर पर बने छेद को एकटक देखने लगा। उस पर पड़ती दुकानदार की नजर बेंजी से छिपी नहीं रही। उसने अपने दोनों हाथ कुछ इस मुद्रा में उठाए कि दाएँ हाथ के नीचे वह छेद दब गया। 'वैसे भी।' उसने सोचा, "मेरे पास पूरे अठ्ठाईस रूपये हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है कि मेरी 
कमीज में एक छेद है'।

"यह पैंतीस रूपये का है। क्या तुम खरीदना चाहते हो?" दुकानदार के मुँह से यह बात सुनकर बेंजी का सारा विश्वास छिन्न-भिन्न हो गया। उसे यह अहसास हो गया था जो पेड़ उसे इतना पसन्द आया है उसे वह खरीद नहीं सकता है। ये अठ्ठाईस रूपये जो उसने पूरे सप्ताह नुक्कड़ के ढाबे पर कठिन परिश्रम करके कमाए थे वे काफी नहीं थे।

उसने घंटो तक सैंकड़ो ग्राहकों को भाग-भाग कर भोजन परोसा था। वह अपनी छोटी बहनों सैमी और रूथ के लिए पेड़ खरीदना चाहता था। वह तो समझ रहा था कि पेड़ पच्चीस रूपये में ही आ जाएगा। बाकी तीन रूपये उसे और सजाने में काम आएँगे।

"क्या कह रहे हैं, मि. अब्राहम, पिछली बार तो यह केवल पच्चीस रूपये का ही था," बेंजी ने झिझकते हुए कहा।

"जरूर था। पिछले साल पच्चीस रूपये का ही था। पर तुम्हें मालूम है न तब से अब तक महँगाई कितनी बढ़ गई है। मेरी दुकान में कोई भी पेड़ पैंतीस रूपये से कम नहीं हैं।" मि. 
अब्राहम से कहा और पूछा, "जल्दी बोलो, तुम्हें लेना है या नहीं?"

दुकानदार की बात सुनकर बेंजी का चेहरा शर्म से लाल हो गया। ' कितना कठोर आदमी है' सोचते हुए वह खिन्न मन से बाहर निकल आया। अपनी परेशानी में दरवाजे के पास रखी रेत की बालटी से भी टकराते-टकराते बचा। जब दुकान में लोग उसके सारे पेड़ खरीद रहे हैं तो ऐसे में दुकानदार भला उसकी क्या परवाह करेगा। दुकान में भीड़ थी। मा
ता-पिता और बच्चे आपस में चिल्लाकर बात कर रहे थे कि उन्हें कौन-सा पेड़ पसन्द है।

"अब मैं कहाँ से बाकी के सात रूपये लाऊँ" बेंजी ने सोचा। उसे दुख यह था कि इस बार उसके छोटे से घर में कोई पेड़ नहीं होगा। उसे अपनी बहनों का विचार भी परेशान कर रहा था। उसने उन्हें अब की बार बड़े दिन का पेड़ लाने और उसे खूब सजाने के लिए, पूर्ण विश्वास के साथ, सामान लाने का वायदा किया था। यदि वह पेड़ नहीं ले गया तो उनके मन पर क्या बीतेगी। बल्कि उसने तो अपने मित्रों को भी आज रात खाने पर आने का निमंत्रण दिया था। पेड़ के बिना वह क्या मुँह लेकर घर जाएगा, और क्या
अपने मित्रों को दिखाएगा।

शहर के दूसरे छोर पर बेंजी का छोटा-सा दो कमरों का घर था। वहाँ ऐसी दुकानों और सजावट कहाँ थी। बेंजी उदास मन लिए जेब में हाथ डाले जूते से पत्थरों को ठोकर मरता हुआ इधर से उधर घूमने लगा। बाज़ार के एक सिरे पर एक आधी बनी हुई इमारत खड़ी थी। शाम होने के कारण वहाँ बहुत वीरानी छाई हुई थी। बेंजी थोड़ी देर के लिए एक रेत के टीले पर जा बैठा। ठंड के मारे वह काँप रहा था। फिर उठकर बाजार में आ गया। सोचा, दुबारा पूछे। हो सकता है उन्होंने दाम गलत बता दिये हों। पर तभी दिमाग ने झटका दिया कि नहीं। वास्तव में सबसे छोटे पेड़ का मूल्य पैंतीस रूपये ही था।


'बस सात ही रूपये तो कम थे। मैंने क्यों नहीं पिछले हफ्ते और सात रूपये कमा लिये? और दो-चार दिन ढाबे में ज्यादा काम कर लेता तो कमा ही लेता। इसी तरह अपने ऊपर झल्लाते, पैर पटकते, उसने फिर अपने आपको उसी दुकान के सामने खड़े पाया। उसने खिड़की में से देखा, वह पेड़ अभी तक वहीं खड़ा था।


अचानक, उसने मिस्टर अब्राहम को दुकान से बाहर आते हुए देखा। वह अपने दोनों हाथ खुशी से मल रहे थे और काफी सन्तुष्ट लग रहे थे। वह दुकान के बाहर खड़े होकर लोगों को आते-जाते हुए देखने लगे।

जैसे ही बेंजी ने उधर देखा, दुकान के ऊपर लगा बड़ा निऑन साईन बोर्ड जो हरे और लाल रंग में टिमटिमा, टिमटिमा कर कह रहा था 'पेड़ बिक्री के लिए' वह धीरे-धीरे नीचे सरक रहा है। बेंजी ने आव देखा न ताव, उछल कर मिस्टर अब्राहम को धक्का दिया और उन्हें पीछे की ओर धकेल दिया। इस गुत्थम-गुत्था में दोनों जमीन पर लोटपोट हो गए। तभी वह बोर्ड धड़ाम से गिरा और टुकड़े-टुकड़े हो बिखर गया।

"क्या हुआ क्या ? दुकानदार एकदम घबरा गया था।

"ओह," बेंजी चिल्लाया, "तारों में से चिन्गारी निकल रही है।" जैसे ही वह कूदा तार एक गत्ते के 
डिब्बे से छू गये जो वहीं पड़े थे और तुरंत ही आग भड़क उठी। "ओह, ओह, आग! आग," सहमे से मि. अब्राहम चिल्लाये। वह अभी तक जमीन पर बैठे थे।

'आग' शब्द सुनते ही कुछ ही क्षणों में भीड़ एकत्रित हो गई। बेंजी एक झटके से उठा। उसे दुकान के पास रखी रेत की बालटी का ध्यान आया। वही बालटी जिससे वह पहले भी टकराया था। उसने बालटी की रेत आग पर फेंकनी शुरू कर दी और लोगों ने भी ऐसी ही बालटियाँ उठा लीं। कई लोग चिल्ला भी रहे थे कि "आग बुझाने वालों को बुलाओ।" इतनी भागदौड़ और गड़बड़ी के बाद खतरा टल गया। लोग उत्तेजित होकर बात कर रहे थे। किसी की आवाज सुनाई पड़ी, "यह वही लड़का है जिसने मिस्टर अब्राहम की जान बचाई। कितना चतुर है यह।" इशारा बेंजी की ओर था।

"और आग बुझाने में भी इसने कितनी फुर्ती से काम लिया, " किसी दूसरे ने कहा।

सारी बात सुन समझ कर मिस्टर अब्राहम भी मन ही मन बेंजी का गुणगान कर रहे थे।


भारी मन से उन्होंने बेंजी का कंधा दबा दिया। बोले, "मैं तुम्हारा किस तरह से धन्यवाद करूँ। तुमने आज मेरी जान बचाई है।"

"नहीं, नहीं, ऐसा न कहिए मिस्टर अब्राहम, आप सुरक्षित है यही मेरे लिए बहुत खुशी की बात है।" वह कुछ-कुछ शर्मिन्दा महसूस कर रहा था। "अब मुझे घर जाने की अनुमति दे," वह मुड़ने ही लगा था कि मि. अब्राहम ने शांत स्वर में कहा, "मुझे याद है, तुम कुछ घंटे पहले यहाँ आये थे।" जो पेड़ बेंजी लेना चाहता था उसी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने पूछा, "तुम यही पेड़ लेना चाहते थे न?" बेंजी चुप था। "मैं तुम्हें यह पेड़ उपहार स्वरूप देना चाहता हूँ। देखो इसे स्वीकार कर लो। इससे मुझे बहुत खुशी
होगी।"

बेंजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। अपने शरीर पर उसने दो-तीन जगह चिकोटी काट कर देखा कि वह सपना तो नहीं देख रहा था। उसकी आँखों में चमक आ गई। "धन्यवाद सर, पर आप को यह पैसे अवश्य लेने पड़ेंगे और बाकी पैसे मैं कुछ ही दिनों मे लौटा दूँगा।"

"नहीं, नहीं पैसे की बात करके तुम मुझे शर्मिन्दा मत करो, "मि. अब्राहम ने कहा। "मैं तुम्हें
 इसे उपहार के रूप में देना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ मेरी जान बचाने के बदले यह कुछ भी नहीं है, पर क्योंकि तुम्हें यह पसन्द आया था इसीलिए, " कहते-कहते वह रूक गए।

"ओह धन्यवाद सर, मेरी छोटी बहनें बहुत खुश होंगी। मैंने उनको आज रात पेड़ लाकर देने का वायदा किया था।"

"
तब तो तुम्हें अवश्य ही उन्हें निराश नहीं करना चाहिए, "मि. अब्राहम ने मुस्कराते हुए कहा। "एक मिनट रूको," कहते हुए वह अपनी दुकान के पीछे बने एक छोटे से कमरे में गायब हो गये। अगले ही क्षण वह अपने हाथ में एक गत्ते का डिब्बा लेकर वापस आये। "इसे भी पेड़ के साथ ले जाओ, इसमें कुछ सजावट का सामान है। और मेरी गाड़ी तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ आयेगी। नहीं तो फिर कोई समस्या आ खड़ी होगी।"

बेंजी जब घर पहुँचा तो उसे लगा जो गली अभी कुछ घंटों पहले तक ठंडी व वीरान लग रही थी अब खुशियों से भर गई है। उसे लगा कि हरी और लाल बत्तियाँ उसके हृदय को छू रही हैं। पेड़ उतारने के बाद, बेंजी ने ड्राइवर को एक पल के लिए रूकने को कहा, "मैं मि. अब्राहम के लिए कुछ भेजना चाहता हूँ।" घर के अन्दर तेजी से जा कर बेंजी ने एक कागज पर कुछ लिखा और एक लिफाफे में डालकर उसे बंद कर दिया और मि. अब्राहम को देने के लिए ड्राइवर को दे दिया। फिर सुख की सांस ली।

उस रात जब अमर और राहुल चले गये, और उसकी दोनों बहनें शाम के उत्साह से भरी सो गई, तब बेंजी उस पेड़ को देखने लगा जिसका प्रकाश पूरे कमरे में फैल रहा था। इतनी सारी सजावट थी, सुनहरी और चांदी के रंग के काँच के गोले, लाल, नीली, हरी और पीली बत्तियाँ, रंग-बिरंगे रिबन। पर सबसे अच्छा तो उसे चमकीला सितारा लगा था जो उन्हें उस गत्ते के डिब्बे में मिला था। जब भी वह झिलमिलाता था तो लगता कह रहा हो, "मैं यहाँ खुश हूँ।"

जब मि. अब्राहम ने वह लिफाफा खोला तो उन्हें उसमें कुछ रूपये और एक पुर्जा मिला। "कृपया यह अठ्ठाईस रूपये स्वीकार कीजियेगा। पिछले साल पेड़ की यही कीमत थी। मैंने ज्यादा काम नहीं किया था, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। क्रिस्मस की बधाई।

पुण्यकोटि गाय

- कन्नड़ लोक कथा


कलिंग नामक एक ग्वाला पहाड़ के निकट अपनी गायों के साथ बहुत सुख-सन्तोष से रहता था। उसकी गायों में पुण्यकोटि नाम की एक गाय थी, जो अपने बछड़े को बहुत प्यार करती थी। प्रतिदिन संध्या समय वह रंभाती और दौड़ती हुई घर लौट आती थी।

उसी पहाड़ में एक शेर भी रहता था। एक बार बहुत दिनों तक उसे कुछ खाने को नहीं मिला। उसने एक दिन शाम को पुण्यकोटि गाय को रोक कर कहा -- ' मैं तुम्हें अपना आहार बनाऊँगा।'

पुण्यकोटि ने शेर से विनय के साथ कहा - ' मुझे घर जाने दो, बछड़े को दूध पिलाने के बाद मैं स्वयं तुम्हारे सम्मुख हाजिर हो जाउंगी।'

पहले तो शेर ने उसकी बात न मानी, पर जब पुण्यकोटि ने विश्वास दिलाया कि वह निश्चय ही वापस आने का वचन दे रही है, तो शेर ने कहा -- 'अच्छा, तुम जा सकती हो, लेकिन अपना वचन निभाना न भूलना।'

गौशाला में बछड़े को दूध पिलाते समय पुण्यकोटि ने उसको वह समाचार दिया और आँखों में आँसू भर कर अपने बछड़े से विदा ली। बाहर निकलते समय उसने बछड़े से कहा -- ' बेटा, सावधानी से और नम्र भाव से रहना।'

फिर पुण्यकोटि ने अन्य गायों से कहा -- 'बहनों, मैं तो जा रही हूँ, लेकिन मेरे बछड़े को अपना बच्चा समझकर इसका ध्यान रखना।'

फिर पुण्यकोटि ने शेर के पास जाकर कहा -- 'लो, मुझे खा लो।'
शेर ने सोचा कि इतनी अच्छी गाय को अपना आहार बना लेना तो बहुत बुरा होगा। यह सोचकर उसने उस गाय को छोड़ दिया और आगे के लिए अन्य सब गायों को भी अभयदान दे दिया।

बंटी की आइसक्रीम

- अंजलि राजगुरू


बंटी आज जब स्कूल से आया तो फिर उसने घर पर ताला देखा। घर की सीढ़ियों पर वह अपना बैग रख कर बैठ गया। उसे भूख लगी थी और वह थका हुआ भी था। वह सोचने लगा, काश मेरी माँ भी राजू की माँ की तरह ही घर पर ही होती।

मैं स्कूल से आता तो मुझे स्कूल के हाल-चाल पूछती, मेरे लिये गरम-गरम खाना बनाती और मुझे प्यार से खिलाती। सचमुच कितना खुशनसीब है राजू! इन्ही विचारों में खोए बंटी की न जाने कब आँख लग गयी। वह वहीं बैठे-बैठे ऊँघने लगा। कुछ देर में माँ दफ्तर से आई और बोली, ``बंटी, उठो बेटे, चलो अंदर चलो''। बंटी उकताए हुए स्वर में बोला, ``ओफ-ओ माँ, तुमने कितनी देर लगा दी, मैं कब से तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा हूँ। तुम्हे मालूम है, मुझे कितनी ज़ोरों की भूख लगी है। मेरे पेट में चूहे दौड़ रहे हैं''।
माँ बंटी को पुचकारते हुए बोली, ``देखो, मैं अभी तुम्हारी थकावट दूर करती हूँ। खाना गरम कर के अभी परोसती हूँ''। ऐसा कहते हुए माँ ने ताला खोला, जल्दी से अपना पर्स सोफे पर फेंकत हुए माँ किचन में जा घुसी। ``बंटी, जल्दी से कपड़े बदलो, दो मिनट में खाना आ रहा है''। बंटी सोफे पर फिर से ऊँघने लगा। माँ ने आ कर बंटी को उठाया और उसे बाथरूम में धकेला।

बंटी ने हाथ- मुँह धोए और खाने की मेज़ पर जा बैठा। खाना खाते-खाते बंटी कुछ सोचने लगा। उसे वे दिन याद आने लगे जब पापा भी थे। घर खुशियों का फव्वारा बना रहता था। पापा की हँसी, पापा के चुटकुले सारे घर को रंगीन बना देते थे। पापा प्यार से उसे मिठ्ठू बुलाते थे। बंटी की कोई भी परेशानी होती, पापा के पास सब के हल होते, मानो परेशानियाँ पापा के सामने जाने से डरती हों। कितने बहादुर थे पापा। एक बार उसे याद है जब पापा दफ्तर से आईस्क्रीम ले कर आए थे। तीनों की अलग-अलग फ्लेवर वाली आईस्क्रीम! घर तक आते-आते आईस्क्रीम पिघल चुकी थी और माँ ने कहा था, ``तुम भी बस...! क्या इतनी गर्मी में आईस्क्रीम यूँ ही जमी रहेगी''? और पापा ने तीनों आईस्क्रीमों को मिला कर नए फ्लेवर वाला मिल्क-शेक बनाया था।
अचानक माँ का कोमल हाथ उसके बालों को सहलाने लगा। वह मानो नींद से जाग उठा हो। माँ ने कहा, ``क्या बात है? आज तुम बड़े गुम-सुम से दिखाई दे रहे हो। कहीं आज फिर से तो अजय से झगड़ा नहीं हुआ, या फिर तुम्हारी टीम क्रिकेट के मैच में हार गई''?

बंटी ने कहा, ``माँ, पता नहीं क्यों आज मुझे पापा की बड़ी याद आ रही है। पापा को भगवान ने अपने पास क्यों बुला लिया''?

इतना सुनते ही माँ ने जोर से बंटी को गले से लगा लिया और उसकी आँखें आसुँओं से लबा-लब भर गइंर्। माँ की सिसकियाँ बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। यह देख कर बंटी का उदास मन कुछ और उदास हो गया। उसे लगा जैसे इसी क्षण वह बहुत बड़ा हो गया है और माँ का उत्तरदायित्व उसी के कन्धे पर आ गिरा है। उसने ठान लिया कि वह अपने आसुँओं से माँ को कमज़ोर नहीं होने देगा। कितनी मेहनती है माँ! घर का, बाहर का सारा काम कर के वह उसे हमेशा खुश रखने की कोशिश करती है। अब वह कभी नहीं रोयेगा। वह पापा की तरह बनेगा, हमेशा खुशियाँ बाँटने वाला और तकलीफों पर पाँव रख कर आगे बढ़ने वाला। वह माँ को बहुत सुख देगा। उसे हमेशा खुश रखेगा। इतना सोचते-सोचते वह जल्दी-जल्दी खाना खाने लगा।

अगले दिन उठ कर बंटी ने अपनी गुल्लक से पाँच रूपये का नोट निकाला। माँ से छिपाकर, जेब में डालते हुए वह स्कूल की ओर चल पड़ा। ये पैसे वह ऐरो-मॉडलिंग के लिये बचा रहा था। उसे नये-नये छोटे-छोटे लड़ाकू विमान बनाने का बहुत शौक था। पर आज यह पैसे किसी और मकसद के लिये थे। स्कूल से आ कर वह माँ से बोला, ``माँ देखो तो मैं तुम्हारे लिये क्या लाया हूँ! ये रही तुम्हारी फ्रूट एैंड नट आईस्क्रीम और मेरी चॉकलेट आईस्क्रीम। लिफाफा आगे बढ़ाया तो देखा, दोनो आईस्क्रीमें घुल कर एक हो गई थीं। माँ ने कहा, ``तुम भी बस... क्या इतनी गर्मी में... ''। और बंटी ने वाक्य पूरा करते हुए कहा, ``आईस्क्रीम यूँ ही जमी रहेगी''? और दोनों ज़ोर से खिलखिलाकर हँस दिये।

धूर्त भेड़िया





- पंचतंत्र से

ब्रह्मारण्य नामक एक बन था। उसमें कर्पूरतिलक नाम का एक बलशाली हाथी रहता था। देह में और शक्ति में सबसे बड़ा होने से बन में उसका बहुत रौब था। उसे देख सारे बाकी पशु प्राणी उससे दूर ही रहते थे।

जब भी कर्पूरतिलक भूखा होता तो अपनी सूँड़ से पेड़ की टहनी आराम से तोड़ता और पत्ते मज़े में खा लेता। तालाब के पास जा कर पानी पीता और पानी में बैठा रहता। एक तरह से वह उस वन का राजा ही था। कहे बिना सब पर उसका रौब था। वैसे ना वह किसी को परेशान करता था ना किसी के काम में दखल देता था फिर भी कुछ जानवर उससे जलते थे।

जंगल के भेड़ियों को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। उन सब ने मिलकर सोचा, "किसी तरह इस हाथी को सबक सिखाना चाहिये और इसे अपने रास्ते से हटा देना चाहिये। उसका इतना बड़ा शरीर है, उसे मार कर उसका मांस भी हम काफी दिनों तक खा सकते हैं। लेकिन इतने बड़े हाथी को मारना कोई बच्चों का खेल नहीं। किसमें है यह हिम्मत जो इस हाथी को मार सके?"

उनमें से एक भेड़िया अपनी गर्दन ऊँची करके कहने लगा, "उससे लड़ाई करके तो मैं उसे नहीं मार सकता लेकिन मेरी बुद्धिमत्ता से मैं उसे जरूर मारने में कामयाब हो सकता हूँ।" जब यह बात बाकी भेड़ियों ने सुनी तो सब खुश हो गये। और सबने उसे अपनी करामत दिखाने की इज़ाज़त दे दी।

चतुर भेड़िया हाथी कर्पूरतिलक के पास गया और उसे प्रणाम किया। "प्रणाम! आपकी कृपा हम पर सदा बनाए रखिये।"
कर्पूरतिलक ने पूछा, "कौन हो भाई तुम? कहाँ से आये हो? मैं तो तुम्हें नहीं जानता। मेरे पास किस काम से आये हो?"

"महाराज! मैं एक भेड़िया हूँ। मुझे जंगल के सारे प्राणियों ने आपके पास भेजा है। जंगल का राजा ही सबकी देखभाल करता है, उसीसे जंगल की शान होती है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि अपने जंगल में कोई राजा ही नहीं। हम सब ने मिलकर सोचा कि आप जैसे बलवान को ही जंगल का राजा बनाना चाहिये। इसलिये राज्याभिषेक का मुहुर्त हमने निकाला है। यदि आपको कोई आपत्ति नहीं हो तो आप मेरे साथ चल सकते हैं और हमारे जंगल के राजा बन सकते हैं।"

ऐसी राजा बनने की बात सुनकर किसे खुशी नहीं होगी? कर्पूरतिलक भी खुश हो गया। अभी थोड़ी देर पहले तो मैं कुछ भी नहीं था और एकदम राजा बन जाऊँगा यह सोचकर उसने तुरन्त हामी भर दी। दोनो चल पडे। भेड़िया कहने लगा, "मुहुर्त का समय नज़दीक आ रहा है, जरा जल्दी चलना होगा हमें।"

भेड़िया जोर जोर से भागने लगा और उसके पीछे कर्पूरतिलक भी जैसे बन पड़े, भागने की केाशिश में लगा रहा। बीच में एक तालाब आया। उस तालाब में ऊपर ऊपर तो पानी दिखता था। लेकिन नीचे काफी दलदल था। भेड़िया छोटा होने के कारण कूद कर तालाब को पार कर गया और पीछे मुड़कर देखने लगा कि कर्पूरतिलक कहाँ तक पहुँचा है।

कर्पूरतिलक अपना भारी शरीर लेकर जैसे ही तालाब में जाने लगा तो दलदल में फंसता ही चला गया। निकल न पाने के कारण में वह भेड़िये को आवाज़ लगा रहा था, "अरे! दोस्त, मुझे जरा मदद करोगे? मैं इस दलदल से निकल नहीं पा रहा हूँ।"
लेकिन भेड़िये का ज़वाब तो अलग ही आया, "अरे! मूर्ख हाथी, मुझ जैसे भेड़िये पर तुमने यकीन तो किया लेकिन अब भुगतो और अपनी मौत की घड़ियाँ गिनते रहो, मैं तो चला!" यह कहकर भेड़िया खुशी से अपने साथियों को यह खुशखबरी देने के लिये दौड़ पड़ा।

बेचारा कर्पूरतिलक!

इसीलिये कहा गया है कि एकदम से किसी पर यकीन ना करने में ही भलाई होती है।

नए साल का उत्सव


इला प्रवीण की कहानी
सीमा और सनी अच्छे दोस्त थे। आज नए साल की पार्टी में उनका घर परिवार के ढेर से दोस्तों और रिश्तेदारों से घर भरा हुआ था। पार्टी में नाच गाना था, खाना पीना था। हॉल में बड़े लोग थे और बच्चों का इंतज़ाम बगीचे में था।

सीमा और सनी भी एक गीत की धुन पर नाचने लगे। तभी सनी का पैर फिसला और वह गिर पड़ा। सीमा घबरा गई, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। सनी रोने लगा था शायद उसे ज़ोर की चोट लगी थी। वह माँ को देखने हॉल की ओर दौड़ी।
हॉल में काफ़ी भीड़ थी। उस भीड़ में सीमा को अपनी माँ तो नहीं दिखीं पर शालू आंटी दिख गईं। सीमा ने शालू आंटी से पूछा,"आंटी सनी गिर गया है। उसके पैर में चोट लगी है। क्या आपने उसकी या मेरी माँ को देखा है?"
शालू आंटी बोलीं, "नहीं, देखा तो नहीं पर मैं उन्हें खोज कर यह बात बता देती हूँ। सीमा दौड़ कर सनी के पास वापस आई और उसने सोचा अब मुझे ही कुछ करना होगा।
उसने सनी को दिलासा देते हुए कहा, "रो मत सनी। अभी माँ आ जाएगी और फिर हम डाक्टर के पास चलेंगे। तुम तो मेरे बहादुर दोस्त हो। बहादुर बच्चे कभी नहीं रोते।" सीमा की ये बातें सुनकर सनी को बहुत अच्छा लगा।
तभी माँ आ गईं। पार्टी में जगन काका भी थे। वो डाक्टर हैं। सभी काका की क्लीनिक पर गए। काका ने सनी को देखा और बताया, "इसे ज़्यादा चोट नहीं आई है। बस एक बाम और यह बैंड एड।" फिर सब लोग पार्टी में आ गए।
लोग अभी भी नाच गा रहे थे। डाक्टर काका ने कहा सनी को दो तीन घंटे आराम करना चाहिए ताकि तकलीफ़ ना बढ़े। सीमा और सनी पास पड़ी कुर्सियों पर बैठ कर बातें करने लगे।

दशहरे का मेला

1 —पूर्णिमा वर्मन



मौसम बदल रहा था और हल्की-हल्की ठंड पड़ने लगी थी। इसी बीच न जाने कैसे छोटू बीमार पड़ गया। मुहल्ले के सारे बच्चों में उदासी छा गई। सबका दादा और शरारतों की जड़ छोटू अगर बिस्तर में हो तो दशहरे की चहलपहल का मज़ा तो वैसे ही कम हो जाता। ऊपर से अबकी बार मम्मियों को न जाने क्या हो गया था।  
रमा आंटी ने कहा कि अबकी बार मेले में खर्च करने के लिए बीस रूपए से ज़्यादा नहीं मिलेंगे, तो सारी की सारी मम्मियों ने बीस रूपए ही मेले का रेट बाँध दिया। मेला न हुआ, आया का इनाम हो गया। बीस रूपए में भला कहीं मेला देखा जा सकता था? यही सब सोचते-सोचते हेमंत धीरे-धीरे जूते पहन रहा था कि नीचे से कंचू ने पुकारा -
'हेमंत, हेमंत चौक नहीं चलना है क्या?' हेमंत और सोनू भागते हुए नीचे उतरे और जल्दी से मोटर की ओर भागे जहाँ बैठा हुआ स्टैकू पहले ही उनका इंतज़ार कर रहा था।
दुर्गापूजा की छुटि्टयाँ हो गई थीं। मामा जी के घर के सामने वाले पार्क में हर शाम को ड्रामा होता था। हेमंत, कंचू और सोनू इन छुटि्टयों में शाम को मामा जी के यहाँ जाते थे, जहाँ वे ममेरे भाई स्टैकू के साथ ड्रामा देखते, घूमते फिरते और मनोरंजन करते।
हर बार सबके नए कपड़े सिलते और घर भर में हंगामा मचा रहता। अबकी बार कंचू ने गुलाबी रंग की रेशमी फ्राक सिलाई थी और ऊँची एड़ी की चप्पलें ख़रीदी थीं। आशू और स्टैकू मिलकर बार-बार उसकी इस अलबेली सजधज के लिए उसे चिढ़ा देते।
ऊधम और शरारतों की तो कुछ बात ही मत पूछो जब सारे भाई बहन इकठ्ठे होते तो इतना हल्ला-गुल्ला मचता कि गर्मी की छुटि्टयों की रौनक भी हल्की पड़ जाती। इस साल भी बच्चों का वही नियम शुरू हो गया था। शाम को वे लोग शहर में लगी रंगीन बत्तियों की रौनक देखते हुए चौक पहुँचे और घर में घुसते ही खाने की मेज पर जम गए। मामी ने खाने का ज़बरदस्त इंतज़ाम किया था। आशू के पसंद की टिक्कियाँ, कंचू की पसंद के आलू और स्टैकू की पसंद की गर्मागर्म चिवड़े-मूँगफली की खुशबू घर में भरी थी। रवि की पसंद के सफ़ेद रसगुल्ले मेज़ पर आए तो सबको रवि की याद आ गई।
'रवि ओ रवि, नाश्ता करने आओ'
मामी ने ज़ोर से आवाज़ दी।
"आया माँ" रवि की आवाज़ सबसे ऊपर वाले कमरे से आई।
"अरे ये रवि ऊपर क्या कर रहा है? कंचू ने अचरज से पूछा।
मामी ने बताया कि अबकी बार नाटक में उसने भी भाग लिया है इसलिए वह ऊपर टींकू के साथ कार्यक्रम की तैयारी और रिहर्सल में लगा हुआ है।
थोड़ी देर में पूरा मेकअप लगाए हुए टींकू नीचे उतरा तो सभी उसे देखकर खिलखिला कर हँस दिए। टींकू ने शरमा कर मुँह फेर लिया। "हमें अपने नाटक में नहीं बुलाओगे" हेमंत ने पूछा।
"तो क्या तुम्हें हमारे नाटक के टिकट नहीं मिले? " रवि ने अचरज से कहा, "टिकट तो सारे स्टैकू के पास थे।"
"अरे हाँ जल्दी-जल्दी में टिकट मैं तुम्हें देना भूल गया, "स्टैकू ने गिनकर तीन टिकट आशु, सोनू और कंचू के लिए निकाले। सोनू ने पूछा, "बिना टिकट नाटक देखना मना है क्या?" रवि ने कहा "मना तो नहीं है लेकिन कुर्सियाँ हमने टिकट के हिसाब से लगाई हैं।

"अरे तुम लोगों का अभी तक नाश्ता नहीं ख़त्म हुआ, देखो, रामदल के बाजे सुनाई पड़ने लगे। नाश्ता ख़त्म करे बिना घूमने को नहीं मिलेगा। फिर रात के बारह बजे तक तुम लोगों का कोई अतापता नहीं मिलता।" मामी ने रसोई में से ही चिल्लाकर कहा।
जल्दी-जल्दी खा-पीकर वे सब ऊपर के छज्जे पर आ गए। मामा जी ने दल पर फेंकने के लिए ढेर-सी फूलों की डालियाँ ख़रीद ली थी। उन्होंने राम लक्ष्मण पर डालियाँ फेंकी, रामदल का मज़ा लिया और नीचे आ गए। पार्क में पहुँचे तो नाटक शुरू ही होने वाला था। सबने अपनी-अपनी कुर्सियाँ घेर ली। थोड़ी देर में दर्शकों की भीड़ इतनी बढ़ गई कि पूरा पार्क भर गया। कुर्सियों के आसपास खड़े लोग कुर्सियों पर गिरे पड़ते थे, मानो तिल रखने को भी जगह नहीं थीं। इस सबसे घबराकर सोनू घर चलने की ज़िद करने लगा। थोड़ी देर तो वे लोग वहाँ बैठे पर जब उसने अधिक ज़िद की तो वे उठे और भीड़ में से किसी तरह रास्ता बनाते गिरते पड़ते सड़क पर आ गए।
खोमचे वाले हर जगह जमे हुए थे। चूरन, भेलपूड़ी, चाट, आइस्क्रीम और मूँगफली, सबने अपनी छोटी-छोटी ढेर-सी दूकानें खोल ली थीं। मिठाइयों और खिलौनों की भी भरमार थी। सड़क पर खूब हलचल थी और लाउडस्पीकरों पर ज़ोर-ज़ोर से बजते हुए गाने कान फाड़े डालते थे।
आशू ने एक मूँगफली वाले से मुँगफली ख़रीद कर अपनी सारी जेबें भर लीं और सभी बच्चों ने अपने पसंद की चीज़ें ख़रीदीं। वे घर लौट कर आए तो मामा जी ने कहा, "अब तुम सब कार में बैठो, मैं तुम्हें घर छोड़ आऊँ?"
सिर्फ़ आइस्क्रीम और मूँगफल्ली में ही पंद्रह रुपए खर्च हो गए। फिर बीस रुपए में मेला कैसे देखा जाएगा। मामा जी ने हेमंत को उदास देखकर पूछा, "हेमंत बेटे, तुम्हें रोशनी और नाटक देखकर अच्छा नहीं लगा क्या? इतने उदास क्यों हो?''
सोनू और कंचू बोले, "मामा जी सिर्फ़ हेमंत ही नहीं, हम सभी बच्चे बहुत उदास हैं। एक तो छोटू को बुखार होने के कारण इस बार दशहरे पर हम अपनी फाइवस्टार सर्कस नहीं कर पा रहे हैं, दूसरे हम सबको मेले के लिए अबकी बार सिर्फ़ बीस रुपए मिलेंगे। इतने में मेला कैसे देखा जा सकता है?"
मामाजी मुस्करा कर बोले, "मेले में तुम्हें मिठाइयाँ ही ख़रीदनी होती हैं न? चलो भाई, अबकी बार मिठाई हम ख़रीद देंगे। बीस रुपए जमा करके तुम पुस्तकालय के सदस्य बन जाओ और नियमित रूप से पुस्तकें पढ़ो तो साल भर तुम्हारा ज्ञान भी बढ़ेगा और मनोरंजन भी होगा।"
सोनू ने पूछा, "तो मामा जी, पुस्तकालय में कॉमिक्स भी मिलती हैं क्या?"
"हाँ, हाँ, सब तरह की किताबें होती हैं वहाँ। कॉमिक्स से लेकर विज्ञान तक हर विषय की। कल सुबह तैयार रहना, तो तुम्हें पुस्तकालय दिखा लाऊँगा।
बच्चे घर लौटे तो मेले की मिठाइयाँ भूलकर पुस्तकालय की बातें करने लगे। सामने दुर्गा जी के मंदिर में अष्टमी की आरती के घंटे बजने शुरू हुए तो दादी जी ने याद दिलाया, "आरती लेने नहीं चलोगे क्या?" यह पुकार सुन सभी बच्चे दादी जी के साथ आरती लेने चल दिए।

दोस्ती

कहानी - प्रमिला गुप्ता


शहर से दूर जंगल में एक पेड़ पर गोरैया का जोड़ा रहता था। उनके नाम थे, चीकू और चिनमिन। दोनो बहुत खुश रहते थे। सुबह सवेरे दोनो दाना चुगने के लिये निकल जाते। शाम होने पर अपने घोंसले मे लौट जाते। कुछ समय बाद चिनमिन ने अंडे दिये।

चीकू और चिनमिन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। दानों ही बड़ी बेसब्री से अपने बच्चों के अंडों से बाहर निकलने का इंतजार करने लगे। अब चिनमिन अंडों को सेती थी और चीकू अकेला ही दाना चुनने के लिये जाता था।

एक दिन एक हाथी धूप से बचने के लिये पेड़ के नीचे आ बैठा। मदमस्त हो कर वह अपनी सूँड़ से उस पेड़ को हिलाने लगा। हिलाने से पेड़ की वह डाली टूट गयी, जिस पर चीकू और चिनमिन का घोंसला था। इस तरह घोंसले में रखे अंडे टूट गये।

अपने टूटे अंडों को देख कर चिनमिन जोरों से रोने लगी। उसके रोने की आवाज सुन कर, चीकू और चिनमिन का दोस्त भोलू -- उसके पास आये और रोने का कारण पूछने लगे।

चिनमिन से सारी बात सुनकर उन्हें बहुत दुख हुआ। फिर दोनो को धीरज बँधाते हुए भोलू -- बोला, "अब रोने से क्या फायदा, जो होना था सो हो चुका।"

चीकू बोला, "भोलू भाई, बात तो तुम ठीक कर रहे हो, परंतु इस दुष्ट हाथी ने घमंड में आ कर हमारे बच्चों की जान ले ली है। इसको तो इसका दंड मिलना ही चाहिये। यदि तुम हमारे सच्चे दोस्त हो तो उसको मारने में हमारी मदद करो।"

यह सुनकर थोड़ी देर के लिये तो भोलू दुविधा में पड़ गया कि कहाँ हम छोटे छोटे पक्षी और कहाँ वह विशालकाय जानवर। परंतु फिर बोला, "चीकू दोस्त, तुम सच कह रहे हो। इस हाथी को सबक सिखाना ही होगा। अब तुम मेरी अक्ल का कमाल देखो। मैं अपनी दोस्त वीना मक्खी को बुला कर लाता हूँ। इस काम में वह हमारी मदद करेगी।" और इतना कह कर वह चला गया।

भोलू ने अपनी दोस्त वीना के पास पहुँच कर उसे सारी बात बता दी। फिर उसने उससे हाथी को मारने का उपाय पूछा। वीना बोली, "इससे पहले की हम कोई फैसला करे, अपने मित्र मेघनाद मेंढ़क की भी सलाह ले लूँ तो अच्छा रहेगा। वह बहुत अक्लमंद है। हाथी को मारने के लिये जरूर कोई आसान तरीका बता देगा।

चीकू, भोलू और वीना, तीनों मेघनाद मेंढ़क के पास गये। सारी बात सुन कर मेघनाद बोला, "मेरे दिमाग में उसे मारने की एक बहुत ही आसान तरकीब आयी है।

वीना बहन सबसे पहले दोपहर के समय तुम हाथी के पास जा कर मधूर स्वर में एक कान में गुंजन करना। उसे सुन कर वह आनंद से अपनी आँखे बंद कर लेगा। उसी समय भोलू अपनी तीखी चोंच से उसकी दोनो आँखें फोड़ देगा। इस प्रकार अंधा हो कर वह इधर-उधर भटकेगा।

थोड़ी देर बाद उसको प्यास लगेगी तब मैं खाई के पास जा कर अपने परिवार सहित जोर-जोर से टर्-टर् की आवाज करने लगूँगा। हाथी समझेगा की यह आवाज तालाब से आ रही है। वह आवाज की तरफ बढ़ते बढ़ते खाई के पास आयेगा और उसमें जा गिरेगा और खाई में पड़ा पड़ा ही मर जाएगा।

सबको मेघनाद की सलाह बहुत पसंद आयी। जैसा उसने कहा था, वीना और भोलू ने वैसा ही किया। इस तरह छोटे छोटे जीवों ने मिल कर अपनी अक्ल से हाथी जैसे बड़े जीव को मार गिराया और फिर से प्यार से रहने लगे।

जादू की छड़ी


इला प्रवीण



एक रात की बात है शालू अपने बिस्तर पर लेटी थी। अचानक उसके कमरे की खिडकी पर बिजली चमकी। शालू घबराकर उठ गई। उसने देखा कि खिडकी के पास एक बुढिया हवा मे उड़ रही थी। बुढ़िया खिडकी के पास आइ और बोली ``शालू तुम मुझे अच्छी लड़की हो। इसलिए मैं तुम्हे कुछ देना चाहती हूँ।'' शालू यह सुनकर बहुत खुश हुई।

बुढिया ने शालू को एक छड़ी देते हुए कहा ``शालू ये जादू की छड़ी है। तुम इसे जिस भी चीज की तरफ मोड़ कर दो बार घुमाओगी वह चीज गायब हो जाएगी।'' अगले दिन सुबह शालू वह छड़ी अपने स्कूल ले गई। वहा उसने शैतानी करना शुरू किया। उसने पहले अपने समने बैठी लड़की की किताब गायब कर दी फिर कइ बच्चों की रबर और पेंसिलें भी गायब कर दीं। किसी को भी पता न चला कि यह शालू की छड़ी की करामात है।

जब वह घर पहुँची तब भी उसकी शरारतें बंद नही हुई। शालू को इस खेल में बडा मजा आ रहा था। रसोई के दरवाजे के सामने एक कुरसी रखी ती। उसने सोचा, ``क्यों न मै इस कुरसी को गायब कर दूँ। जैसे ही उसने छडी घुमाई वैसे ही शालू की माँ रसोइ से बाहर निकल कर कुरसी के सामने से गुजरीं और कुरसी की जगह शालू की माँ गायब हो गईं।

शालू बहुत घबरा गई और रोने लगी। इतने ही में उसके सामने वह बुढिया पकट हुई। शालू ने बुढिया को सारी बात बताई। बुढिया ने शालू से कहा `` मै तुम्हारी माँ को वापस ला सकती हू लेकिन उसके बाद मै तुमसे ये जादू की छडी वापस ले लूगी।''

शालू बोली ``तुम्हे जो भी चाहिए ले लो लेकिन मुझे मेरी माँ वापस ला दो।'' तब बुढिया ने एक जादुई मंत्र पढ़ा और देखते ही देखते शालू की माँ वापस आ गई। शालू ने मुड़ कर बुढ़िया का शुक्रिया अदा करना चाहा लेकिन तब तक बुढ़िया बहुत दूर बादलों में जा चुकी थी। शालू अपनी माँ को वापस पाकर बहुत खुश हुई और दौडकर गले से लग गई।

चिंटू और चीनी


- अरुणा घवाना



चिंटू और चीनी भाईबहन थे। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे इसलिए एकसाथ आतेजाते थे।चिंटू और चीनी के स्वभाव बिलकुल भिन्न थे। चीनी सीधीसादी थी, जबकि चिंटू को घर में रखी चीजें खाने की बहुत बुरी आदत थी।

बिस्कुट हो या नमकीन, पेस्ट्री हो या चौकलेट वह कुछ नहीं छोड़ता था। अकसर माँ उसे इस बात के लिए डाँटती भी थीं। पर उसपर इन बातों का कोई असर नहीं होता था। एक दिन गुस्से में आकर माँ ने उस अलमारी को ही ताला लगा दिया जिसमें बिस्कुट आदि चीजें रखीं हुई थीं। उस अलमारी में बिस्कुट आदि के अलावा दवाइयाँ व कुछ अन्य सामान भी रखा हुआ था।

एक दिन चिंटू और चीनी स्कूल से लौटे। चीनी की तबीयत आते ही कुछ खराब हो गई। पहले तो चिंटू ने ध्यान नहीं दिया जब पर चीनी की तबीयत कुछ ज्यादा बिगड़ने लगी तो उसने माँ को आफिस फोन किया और उन्हें चीनी की बिगड़ती हुई तबीयत के बारे में बताया।

माँ बोलीं,``चिंटू लगता है चीनी को लू लग गई है। तुम अलमारी में रखे ग्लूकोस को घोलकर पिला दो, तब तक मैं डाक्टर को फोन करती हूँ। पर तुुम ग्लूकोस को घोल कर पिलाते रहना वरना मुश्किल हो जाएगी। ''

चिंटू जल्दी से रिसीवर रखकर अलमारी से ग्लूकोस निकालने के लिए ज्यों ही अलमारी के पास पहुँचा, देखा ताला लगा था। उसने इधर-उधर चाबी ढूँढी पर उसे कहीं न मिली। तब उसने फिर से माँ के ऑफिस फोन किया।
माँ बोलीं,``ओह बेटा, चाबी तो मेरे पास है।''
``अब क्या होगा मां,'' चिंटू फोन पर ही रो पड़ा, ``अब क्या करूँ?''
फिर रोते हुए मम्मीसे बोला,``आपने अलमारी को ताला क्यों लगाया। आपको पता था कि उसमें ग्लूकोस है फिर। ''
``पर चिंटू तुम्हें भी तो पता था कि उसमें बिस्कुट पड़े हैं जो तुम रोज चुपचुप खा जाते हो। न तुम बिस्कुट खाते न मैं ताला लगाती और न चीनी का इतना बुरा हाल होता। अच्छा, मैं डाक्टर को लेकर अभी आती हूँ।'' कह कर माँ ने रिसीवर रख दिया।

चिंटू की हालत खराब! कभी वह चीनी को देखता तो कभी रोता।थोड़ी देर में माँ आ गई।
``आप अकेली आई हैं,'' माँ के घर में घुसते ही चिंटू ने पूछा, ``आपको पता है चीनी की तबीयत कितनी खराब है।''
तभी अंदर से आवाज आई,`` मैं तो ठीक-ठाक हूँ भइया।''
``अरे माँ के आते ही तू ठीक हो गई मेरी बहन,'' कहकर चिंटू ने चीनी को गले से लगा लिया।
``अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा कभी नहीं ,'' कहते हुए चिंटू रो पड़ा।
माँ ने चिंटू और चीनी को गले से लगा लिया।
असल में चीनी और माँ ने ही मिलकर चिंटू को सबक सिखाने की योजना बनाई थी। 

चालाकी का फल




एक थी बुढ़िया, बेहद बूढ़ी पूरे नब्बे साल की। एक तो बेचारी को ठीक से दिखाई नहीं पड़ता था ऊपर से उसकी मुर्गियाँ चराने वाली लड़की नौकरी छोड़ कर भाग गयी।

बेचारी बुढ़िया! सुबह मुर्गियों को चराने के लिये खोलती तो वे पंख फड़फड़ाती हुई सारी की सारी बुढिया के घर की चारदीवारी फाँद कर अड़ोस पड़ोस के घरों में भाग जातीं और 'कों कों कुड़कुड़' करती हुई सारे मोहल्ले में हल्ला मचाती हुई घूमतीं। कभी वे पड़ोसियों की सब्जियाँ खा जातीं तो कभी पड़ोसी काट कर उन्हीं की सब्जी बना डालते। दोनों ही हालतों में नुकसान बेचारी बुढ़िया का होता। जिसकी सब्जी बरबाद होती वह बुढ़िया को भला बुरा कहता और जिसके घर में मुर्गी पकती उससे बुढ़िया की हमेशा की दुश्मनी हो जाती।

हार कर बुढ़िया ने सोचा कि बिना नौकर के मुर्गियाँ पालना उसकी जैसी कमज़ोर बुढ़िया के बस की बात नहीं। भला वो कहाँ तक डंडा लेकर एक एक मुर्गी हाँकती फिरे? ज़रा सा काम करने में ही तो उसका दम फूल जाता था। और बुढ़िया निकल पड़ी लाठी टेकती नौकर की तलाश में।

पहले तो उसने अपनी पुरानी मुर्गियाँ चराने वाली लड़की को ढूँढा। लेकिन उसका कहीं पता नहीं लगा। यहाँ तक कि उसके माँ बाप को भी नहीं मालूम था कि लड़की आखिर गयी तो गयी कहाँ? "नालायक और दुष्ट लड़की! कहीं ऐसे भी भागा जाता है? न अता न पता सबको परेशान कर के रख दिया।" बुढ़िया बड़बड़ायी और आगे बढ़ गयी।
थोड़ी दूर पर एक भालू ने बुढ़िया को बड़बड़ाते हुए सुना तो वह घूम कर सड़क पर आ गया और बुढ़िया को रोक कर बोला, " गु र्र र , बुढ़िया नानी नमस्कार! आज सुबह सुबह कहाँ जा रही हो? सुना है तुम्हारी मुर्गियाँ चराने वाली लड़की नौकरी छोड़ कर भाग गयी है। न हो तो मुझे ही नौकर रख लो। खूब देखभाल करूँगा तुम्हारी मुर्गियों की।"

"अरे हट्टो, तुम भी क्या बात करते हो? बुढ़िया ने खिसिया कर उत्तर दिया, " एक तो निरे काले मोटे बदसूरत हो मुर्गियाँ तो तुम्हारी सूरत देखते ही भाग खड़ी होंगी। फिर तुम्हारी बेसुरी आवाज़ उनके कानों में पड़ी तो वे मुड़कर दड़बे की ओर आएँगी भी नहीं। एक तो मुर्गियों के कारण मुहल्ले भर से मेरी दुश्मनी हो गयी है, दूसरा तुम्हारे जैसा जंगली जानवर और पाल लूँ तो मेरा जीना भी मुश्किल हो जाए। छोड़ो मेरा रास्ता मैं खुद ही ढूँढ लूँगी अपने काम की नौकरानी।"

बुढ़िया आगे बढ़ी तो थोड़ी ही दूर पर एक सियार मिला और बोला, "हुआँ हुआँ राम राम बुढ़िया नानी किसे खोज रही हो? बुढ़िया खिसिया कर बोली, अरे खोज रहीं हूँ एक भली सी नौकरानी जो मेरी मुर्गियों की देखभाल कर सके। देखो भला मेरी पुरानी नौकरानी इतनी दुष्ट छोरी निकली कि बिना बताए कहीं भाग गयी अब मैं मुर्गियों की देखभाल कैसे करूँ? कोई कायदे की लड़की बताओ जो सौ तक गिनती गिन सके ताकि मेरी सौ मुर्गियों को गिन कर दड़बे में बन्द कर सकें।"

यह सुन कर सियार बोला, "हुआँ हुआँ, बुढ़िया नानी ये कौन सी बड़ी बात है? चलो अभी मैं तुम्हें एक लड़की से मिलवाता हूँ। मेरे पड़ोस में ही रहती है। रोज़ जंगल के स्कूल में पढ़ने जाती है इस लिये सौ तक गिनती उसे जरूर आती होगी। अकल भी उसकी खूब अच्छी है। शेर की मौसी है वो, आओ तुम्हें मिलवा ही दूँ उससे।
बुढ़िया लड़की की तारीफ सुन कर बड़ी खुश होकर बोली, "जुग जुग जियो बेटा, जल्दी बुलाओ उसे कामकाज समझा दूँ। अब मेरा सारा झंझट दूर हो जाएगा। लड़की मुर्गियों की देखभाल करेगी और मैं आराम से बैठकर मक्खन बिलोया करूँगी।"

सियार भाग कर गया और अपने पड़ोस में रहने वाली चालाक पूसी बिल्ली को साथ लेकर लौटा। पूसी बिल्ली बुढ़िया को देखते ही बोली, "म्याऊँ, बुढ़िया नानी नमस्ते। मैं कैसी रहूँगी तुम्हारी नौकरानी के काम के लिये?" नौकरानी के लिये लड़की जगह बिल्ली को देखकर बुढ़िया चौंक गयी। बिगड़ कर बोली, "हे भगवान कहीं जानवर भी घरों में नौकर हुआ करते हैं? तुम्हें तो अपना काम भी सलीके से करना नहीं आता होगा। तुम मेरा काम क्या करोगी?"

लेकिन पूसी बिल्ली बड़ी चालाक थी। आवाज को मीठी बना कर मुस्कुरा कर बोली, "अरे बुढ़िया नानी तुम तो बेकार ही परेशान होती हो। कोई खाना पकाने का काम तो है नहीं जो मैं न कर सकँू। आखिर मुर्गियों की ही देखभाल करनी है न? वो तो मैं खूब अच्छी तरह कर लेती हूँ। मेरी माँ ने तो खुद ही मुर्गियाँ पाल रखी हैं। पूरी सौ हैं। गिनकर मैं ही चराती हूँ और मैं ही गिनकर बन्द करती हूँ। विश्वास न हो तो मेरे घर चलकर देख लो।"

एक तो पूसी बिल्ली बड़ी अच्छी तरह बात कर रही थी और दूसरे बुढ़िया काफी थक भी गयी थी इसलिये उसने ज्यादा बहस नहीं की और पूसी बिल्ली को नौकरी पर रख लिया।

पूसी बिल्ली ने पहले दिन मुर्गियों को दड़बे में से निकाला और खूब भाग दौड़ कर पड़ोस में जाने से रोका। बुढ़िया पूसी बिल्ली की इस भाग-दौड़ से संतुष्ट होकर घर के भीतर आराम करने चली गयी। कई दिनों से दौड़ते भागते बेचारी काफी थक गयी थी तो उसे नींद भी आ गयी।

इधर पूसी बिल्ली ने मौका देखकर पहले ही दिन छे मुर्गियों को मारा और चट कर गयी। बुढ़िया जब शाम को जागी तो उसे पूसी की इस हरकत का कुछ भी पता न लगा। एक तो उसे ठीक से दिखाई नहीं देता था और उसे सौ तक गिनती भी नहीं आती थी। फिर भला वह इतनी चालाक पूसी बिल्ली की शरारत कैसे जान पाती?

अपनी मीठी मीठी बातोंसे बुढ़िया को खुश रखती और आराम से मुर्गियाँ चट करती जाती। पड़ोसियों से अब बुढ़िया की लड़ाई नहीं होती थी क्योंकि मुर्गियाँ अब उनके आहाते में घुस कर शोरगुल नहीं करती थीं। बुढ़िया को पूसी बिल्ली पर इतना विश्वास हो गया कि उसने मुर्गियों के दड़बे की तरफ जाना छोड़ दिया।

धीरे धीरे एक दिन ऐसा आया जब दड़बे में बीस पच्चीस मुर्गियाँ ही बचीं। उसी समय बुढ़िया भी टहलती हुई उधर ही आ निकली। इतनी क़म मुर्गियाँ देखकर उसने पूसी बिल्ली से पूछा, "क्यों री पूसी, बाकी मुर्गियों को तूने चरने के लिये कहाँ भेज दिया?" पूसी बिल्ली ने झट से बात बनाई, " अरे और कहाँ भेजँूगी बुढ़िया नानी। सब पहाड़ के ऊपर चली गयी हैं। मैंने बहुत बुलाया लेकिन वे इतनी शरारती हैं कि वापस आती ही नहीं।"

"ओफ् ओफ् ! ये शरारती मुर्गियाँ।" बुढ़िया का बड़बड़ाना फिर शुरू हो गया, "अभी जाकर देखती हूँ कि ये इतनी ढीठ कैसे हो गयी हैं? पहाड़ के ऊपर खुले में घूम रही हैं। कहीं कोई शेर या भेड़िया आ ले गया तो बस!"

ऊपर पहुँच कर बुढ़िया को मुर्गियाँ तो नहीं मिलीं। मिलीं सिर्फ उनकी हडि्डयाँ और पंखों का ढ़ेर! बुढ़िया को समझते देर न लगी कि यह सारी करतूत पूसी बिल्ली की है। वो तेजी से नीचे घर की ओर लौटी।

इधर पूसी बिल्ली ने सोचा कि बुढ़िया तो पहाड़ पर गयी अब वहाँ सिर पकड़ कर रोएगी जल्दी आएगी नहीं। तब तक क्यों न मैं बची-बचाई मुर्गियाँ भी चट कर लूँ? यह सोच कर उसने बाकी मुर्गियों को भी मार डाला। अभी वह बैठी उन्हें खा ही रही थी कि बुढ़िया वापस लौट आई।

पूसी बिल्ली को मुर्गियाँ खाते देखकर वह गुस्से से आग बबूला हो गयी और उसने पास पड़ी कोयलों की टोकरी उठा कर पूसी के सिर पर दे मारी। पूसी बिल्ली को चोट तो लगी ही, उसका चमकीला सफेद रंग भी काला हो गया। अपनी बदसूरती को देखकर वह रोने लगी।

आज भी लोग इस घटना को नही भूले हैं और रोती हुई काली बिल्ली को डंडा लेकर भगाते हैं। चालाकी का उपयोग बुरे कामों में करने वालों को पूसी बिल्ली जैसा फल भोगना पड़ता है।